अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय । Historically famous Chittorgarh victory of Alauddin Khilji.

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अलाउद्दीन खिलजी की विजय (1297-1311 ईस्वीं) अलाउद्दीन खिलजी उत्तरी भारत की विजय (1297-1305 ईस्वीं)-- अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय व प्रारंभिक सैनिक सफलताओं से उसका दिमाग फिर गया था। महत्वाकांक्षी तो वह पहले ही था। इन विजयों के उपरांत वह अपने समय का सिकंदर महान बनने का प्रयास करने लगा। उसके मस्तिष्क में एक नवीन धर्म चलाने तक का विचार उत्पन्न हुआ था, परन्तु दिल्ली के कोतवाल काजी अल्ला उल मुल्क ने अपनी नेक सलाह से उसका यह विचार तो समाप्त कर दिया। उसने उसको एक महान विजेता होने की सलाह अवश्य दी। इसके अनंतर अलाउद्दीन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम उत्तरी भारत के स्वतंत्र प्रदेशों को विजित करने का प्रयास किया। 1299 ईस्वी में सुल्तान की आज्ञा से उलुगखां तथा वजीर नसरत खां ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहां का बघेल राजा कर्ण देव परास्त हुआ। वह देवगिरी की ओर भागा और उसकी रूपवती रानी कमला देवी सुल्तान के हाथ लगी। इस विजय के उपरांत मुसलमानों ने खंभात जैसे धनिक बंदरगाह को लूटा। इस लूट में प्राप्त धन में सबसे अमूल्य धन मलिक कापुर था, जो कि आगे चलकर सुल्तान का

The invasions, causes and effects of the Turks on India-Part 1

Mahmud Gajnavi
महमूद गजनबी

में आपको भारत पर तुर्कों के आक्रमण तीन चरणों में बताने की कोशिश करुँगी। 

भारत पर तुर्कों के आक्रमण।

भारत पर प्रथम मुस्लिम आक्रमण अरब के मुसलमानों का हुआ था। पर वह आक्रमण अस्थाई सिद्ध हुआ। अरब के मुसलमान सिंध व मुल्तान से आगे अपना साम्राज्य विस्तार नहीं कर सके।  इसका एक कारण खलीफाओं का निर्बल होना भी था। 10वीं शताब्दी के उपरांत अब्बासी खलीफा केवल नाम मात्र के साथ-साथ रह गए थे। अधिकार राजधानी के बाहर तो क्या राजधानी में ही उनके अंगरक्षकों की स्वामी भक्ति पर निर्भर रह गया था।  उनके अंगरक्षक के लोग होते थे। वह प्रकृति से ही योद्धा एवं खूंखार होते थे। अतः खलीफा लोग ने अपने अंगरक्षक बनाने के साथ-साथ सेना में भी उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त करते थे।इसका परिणाम यह हुआ कि तुम धीरे-धीरे प्रबल बन गए और उन्होंने निर्बल खलीफाओं के हाथ से शासन-सत्ता छीन ली। कालांतर में ये तुर्क लोग इतने सफल हो गए कि उन्होंने खलीफाओं की निर्बलता का लाभ उठाकर अफगानिस्तान में एक स्वतंत्र राज्य ही स्थापित नहीं किया, वरन  मुस्लिम साम्राज्य व मुस्लिम धर्म को दुरस्त प्रदेशों में फैलाना आरंभ कर दिया। भारत भी उनकी गिद्द दृष्टि से नहीं बच सका। सिंध व मुल्तान के अतिरिक्त उत्तरी भारत में जो इस्लाम का प्रभाव दृष्टिगत हुआ, उसके भागीदार तुर्क लोग ही थे।  अतः डॉक्टर आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव ने ठीक ही लिखा है कि जिस कार्य को अरब के मुसलमानों ने आरंभ किया, उसे तुर्कों ने पूरा किया।

तुर्कों का उदय--

इस्लामKnow about Islam & India at the beginning of Middle Ages. Part-2 के इतिहास में  जिन जातियों ने विशेष प्रभाव डाला है, उनमें तुर्क जाति भी एक विशेष स्थान रखती है।तुर्क लोग कौन थे-- यह भी एक  विवादाग्रस्त विषय बना हुआ है। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि उनके पूर्वज हूण थे। कालांतर में इनमें शक तथा ईरानियों के रक्त का भी सम्मिश्रण हो गया तथा उन्होंने इस्लाम को अंगीकार कर लिया था। डॉक्टर अवध बिहारी पांडेय की ऐसी मान्यता है कि तुर्क चीन के पश्चिमोत्तर सीमा पर निवास करते थे। उनका सांस्कृतिक स्तर निम्न श्रेणी का था। परंतु वह बड़े खूंखार व लड़ाकू होते थे।  युद्ध से उन्हें स्वभाविक प्रेम था। जब अरब के मुसलमानों ने मध्य एशियाई देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और वहां इस्लाम का प्रचार करना आरंभ किया, तो तुर्कों ने इस्लाम को अंगीकार कर लिया। इनमें से कई गुलाम बनाए गए और कई  स्वेच्छा से मुस्लिम शासकों की सेवा में चले गए। उनके स्वभाविक सामरिक गुणों के कारण उन्हें सेना में विशेष रूप से भर्ती किया जाने लगा।
भारत में इस्लाम धर्म के प्रसार का श्रेय इन तुर्कों को ही जाता है। डॉक्टर एस आर शर्मा का कहना है कि अरबवासी इस्लाम को कॉर्डोबा तक ले गए, ईरानियों ने उसे बगदाद तक पहुंचाया और तुर्क उसे दिल्ली ले गए। जब खलीफा अपने विलासी जीवन व आपसी मतभेद के कारण इस्लाम प्रचार में शिथिल हो रहे थे-- उस समय यह तुर्क लोग ही आगे आए और उन्होंने अपनी धार्मिक कट्टरता का परिचय इस्लाम के प्रचार में दिया। 9 वी व 10 वीं शताब्दी तक यह इतने प्रबल हो गए कि उन्होंने बगदाद वह बुखारा में अपने स्वामियों का तख्ता पलट दिया और अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना का प्रयास करने लगे। अफगानिस्तान में 943 ईस्वी में उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। गजनी भी अफगानिस्तान मैं एक छोटा सा राज्य था,जहां से तुर्कों ने अपनी शक्ति को बढ़ाया।  श्री एस आर शर्मा के शब्दों में, “ यह आश्चर्य की बात है कि एक अथवा दो पीढ़ियों के भीतर यह छोटा सा गढ़ ( गजनी) एक शक्तिशाली साम्राज्य की राजधानी बन गया, जो लाहौर से बगदाद की सीमाओं तक तथा सिंध से समरकंद तक फैला हुआ था।

गजनी का राज्य      

लेनपूल ने लिखा है कि 10 वीं तथा 11 वीं शताब्दियों में तुर्कों का दक्षिण की ओर बढ़ना मुस्लिम Know about Islam & India at the beginning of Middle Ages. Part-1 साम्राज्य के अंतर्गत एक अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना थी। प्रथम वे खलीफाओं के अंगरक्षक बने तथा उचित अवसर पाकर वे उनके स्वामी बन बैठे। धीरे-धीरे प्रांतों पर वे अपना आधिपत्य जमाते हुए मिश्र से समरकंद तक के भू-भाग पर शासन करने लगे। इस प्रकार के परिवर्तन सामानी वंशीय खलीफाओं के समय हुए। इस वंश का पांचवा खलीफा अब्दुल मलिक था। वह इस वंश का सर्वाधिक योग्य शासक माना जाता है।  इस खलीफा ने अलप्तगीन पर बड़ा विश्वास किया और उसे बलख का सूबेदार नियुक्त कर दिया। 931 ईस्वी में जब अब्दुल मलिक इस लोक से विदा हो गया तो अलप्तगीन को अपने पद से वंचित कर दिया गया।  इस पर वह क्रुद्ध हुआ और 932 ईस्वी में उसने गजनी जाकर उसे अपने प्रभाव में कर वहां एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। केम्ब्रिज हिस्ट्री में सर वूल्जले इस तथ्य का समर्थन करते हैं तथा लिखते हैं कि अलप्तगीन के उत्तराधिकारी कुछ समय तक बुखारा के खलीफाओं की सत्ता को नाम मात्र की मान्यता देते रहे। अलप्तगीन में यामिनी वंश की स्थापना की।  977 ईस्वी में अलप्तगीन के दास सुबुक्तगीन ने गजनी पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। वह एक पराक्रमी एवं महत्वाकांक्षी शासक था।  वह प्रथम मुसलमान शासक था, जिसने की उत्तर पश्चिम की ओर से भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया।  उसने काबुल और पंजाब के शाही वंश को परास्त कर उन्हें कर देने को बाध्य किया। 977 ईस्वी में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई।

महमूद गजनबी (998- 1030 ईस्वी)

महमूद का प्रारंभिक जीवन--

सुबुक्तगीन की मृत्यु 997 ईस्वी में हुई।  उसकी मृत्यु के उपरांत उसका छोटा पुत्र इस्माइल गजनी का स्वामी बना।  परंतु सुबुक्तगीन का अन्य पुत्र महमूद उसे आजन्म के लिए बंदी बनाकर  गजनी का स्वामी बन बैठा।  इसका जन्म 1 नवंबर 971 इसवी को हुआ था।  इस प्रकार वह 27 वर्ष की आयु में 998 ईस्वी में गजनी का सुल्तान बना था।  प्रारंभ में उसे इस्लामिक ढंग की शिक्षा दी गई थी।  कुरान, हदीस तथा  शरीयत के नियमों से वह भली भांति परिचित था।  यद्यपि वह कुरूप था, तथा प्रतिभाशाली होने के साथ कुशल सामरिक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी था। युद्धों से उसे अधिक अभिरुचि थी।  अपनी किशोरावस्था में उसने अपने पिता के नेतृत्व में अनेक युद्ध किए थे, जिसमें वह अपने रण कुशलता का परिचय दे चुका था।
महमूद को प्रशासन का भी अच्छा ज्ञान था।  सुबुक्तगीन के समय वह खुरासान का 4 वर्ष तक सूबेदार भी रह चुका था।  जिस समय वह गजनी का सुल्तान बना, उस समय उसके अधीन केवल अफगानिस्तान वह खुरासान के ही राज्य थे।  वह एक महत्वकांक्षी युवक था।  अतः उसने एक महान साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा की परंतु उस समय उसकी अवस्था दयनीय थी।  अतः उसने खलीफा से उसे गजनी का वास्तविक उत्तराधिकारी मानने का अनुरोध किया।बगदाद के खलीफा अल कादरी बिल्ला ने महमूद को गजनी का स्वामी माना तथा उसे यामीन उद दौला(साम्राज्य का दाहिना हाथ) तथा यामीन उल-मिल्लाह (मुसलमानों का रक्षक) की उपाधि से विभूषित किया।  इन दोनों उपाधियों का क्रम से अर्थ होता है साम्राज्य का दाहिना हाथ तथा मुसलमानों का संरक्षक।  इस प्रकार उसका वंश यामिनी के नाम से विख्यात हुआ।  सर वूल्जले हेग का कथन है कि इस अवसर पर उसने प्रतिवर्ष भारत के मूर्ति पूजकों के विरुद्ध युद्ध करने की प्रतिज्ञा की थी।इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने हेतु ही उसने भारत पर 17 आक्रमण किए थे।  इतिहासकार लेनपूल भी इसका समर्थन करते हैं।

महमूद के भारत आक्रमण के उद्देश्य।

महमूद ने भारत पर कितने आक्रमण क्योंकि है? इनके पीछे उसके क्या प्रमुख उद्देश्य थे? इसके विषय में विभिन्न इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं।  मैं उसके उद्देश्यों की समीक्षा इस प्रकार करुँगी।

1.भारत में इस्लाम का प्रचार करना--

कुछ इतिहासकारों ने महमूद को धर्मांध बताया है। वह अपने धर्म का कट्टर था।  धर्म प्रसार वह पूर्व उत्साह से करना चाहता था। इसके पक्ष में इतिहासकार उसकी वह प्रतिज्ञा प्रस्तुत करते हैं जो उसने खलीफा से की थी। इसके अतिरिक्त उसका दरबारी इतिहासकार उतबी भी ने उस के भारत आक्रमण को जिहाद की संज्ञा दी है। उतबी ने बताया है कि महमूद का भारत पर आक्रमण करने का उद्देश्य इस्लाम का प्रचार तथा कुफ्र का मुलोछेदन करना था। इससे स्पष्ट होता है कि उसका भारत पर आक्रमण करने का उद्देश्य धार्मिक था।  परंतु प्रफेसर हबीब तथा नाजिम ने अपने पुष्ट प्रमाणों  से इस धारणा को भ्रामक बताने का प्रयास किया है। डॉक्टर नाजिम का मत है कियधपि उसकी विजयों  के पीछे पीछे धर्म प्रचारक भी थे और कुछ हिंदुओं ने इस्लाम धर्म स्वीकार भी कर लिया; परंतु उसका उद्देश्य विजय तथा धन प्राप्ति ही था।वह अलबरुनी के इस कथन से भी सहमत नहीं है कि उसने अपनी धार्मिक कट्टरता क्रूरताओं के कारण इस्लाम को बहुत बदनाम कर दिया था।  नाजिम का कहना है कि देवालयों को लूटना तथा मूर्तियों को तोड़ना आदि तत्कालीन युद्ध प्रणाली का अंग था। महमूद के वास्तविक विचार कुछ भी रहे हो परंतु अधिकांश मध्यकालीन इतिहास का अर्थ तथा उसके अनुयाई उसके आक्रमणों को धर्म युद्ध की संज्ञा देकर उसकी प्रशंसा ही करते हैं।

2. धन कमाना- 

बहुत देखा जाता है कि विजेताओं को धन की  भी महान लिप्सा होती है। महमूद इसका अपवाद नहीं था।  उसे तो धन कमाने की बड़ी लालसा थी।  डॉक्टर एस आर शर्मा लिखते हैं, “ 1008 ईस्वी में पेशावर के युद्ध में भारतीय राष्ट्रीय  मोर्चे की पराजय  ने महमूद की उडैसी (महाकाव्य) का एक नया अध्याय आरंभ कर दिया।  उसके बाद वह निश्चित रूप से स्वर्ण चर्म की तलाश में जुट गया।  नगरकोट, थानेश्वर, मथुरा और सोमनाथ सोने के अक्षर से, जो महमूद के लोलुप हृदय की पट्टी पर लिखे हुए थे।  इन स्थानों के धन को वह लोग पूर्ण दृष्टि से देखा करता था …….डॉक्टर आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव भी इसी मत के समर्थक हैं। वे इसकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं--” सभी पराक्रमी लोगों की भांति वह भी धन का लोभी था और उसने भारत की अपार धन संपत्ति की कहानियां सुन रखी थी।

3. भारत से हाथी प्राप्त करना

महमूद निसंदेह एक कुशल सेनानायक था।  वह जानता था कि मध्य एशिया में हाथियों के प्रयोग से शत्रु को परास्त किया जा सकता है।  इसी का समर्थन करते हुए डॉक्टर अवध बिहारी पांडे लिखते हैं -” कुशल सैनिक होने के कारण महमूद ने यह भी समझ लिया था कि भारतीय हाथियों का ठीक उपयोग करने पर मध्य एशिया के विरोधी शासकों को हराना सुगमतर होगा।

4.  साम्राज्य का विस्तार करना

डॉक्टर आशीर्वाद लाल लिखते हैं-- “महमूद महत्वाकांक्षी था और अधिक से अधिक विस्तृत साम्राज्य पर शासन करने कि उसकी अभिलाषा थी।वह जब 998 ईस्वी में गद्दी पर बैठा तो उसके अधीन केवल गजनी वह खुरासान के ही प्रदेश थे।  अतः उसने सुल्तान बनने के साथ ही आसपास के प्रदेशों पर आक्रमण कर दिए तथा उनको अपने अधीन कर लिया।
परंतु महमूद की भारत विजय के साथ यह बात लागू नहीं होती।  उस ने भारत पर कितने आक्रमण किए और लगभग सारे उत्तरी भारत को उसने अपने घुड़सवार सैनिकों से कुचलवा दिया।  यह सब होते हुए भी उसने भारत के किसी प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास नहीं किया।  डॉक्टर एस आर शर्मा का कहना है कि उसने यह काम मोहम्मद गौरी के लिए छोड़ दिया था।  डॉक्टर ईश्वर टोपा लिखते हैं किउसने विजेता की अभिलाषा अवश्य थी, पर वह साथ में वास्तविक विजेता नहीं था।  विजित प्रदेशों पर शासन करने की इच्छा उसके नहीं थी।  वह विजिट प्रदेश पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व कायम करना ही पर्याप्त समझता था।

5.  साम्राज्य को सुरक्षित रखना-- 

जब गजनी का सुलतान पिराई था तो पंजाब के हिंदू राजा ने मुसलमानों पर आक्रमण किया था।  पंजाब के हिंदू राजा का राज्य उस समय हिंदूकुश तक फैला हुआ था और काबुल की घाटी भी उसमें ही सम्मिलित थी।  पंजाब का राजा गजनी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित था।  इसी कारण यह युद्ध हुआ।  इस युद्ध में हिंदू परास्त अवश्य हुए पर उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा।  998 ईसवी में इसी कारण जयपाल वह सुबुक्तगीन में संघर्ष हुआ था।  अतः महमूद इस संकट से परिचित था।  जयपाल पुणे गजनी पर आक्रमण कर दे, इसकी सुरक्षा के लिए उसमें भारत के राज्यों पर आक्रमण किए।  इसी बात की पुष्टि करते हुए डॉक्टर एल श्रीवास्तव लिखते हैं--” वह यथार्थवादी था और पड़ोस में स्थित एक शक्तिशाली तथा शत्रुतापूर्ण हिंदू राज्य के अस्तित्व से उसकी स्वतंत्रता और विशेषकर आक्रमणकारी नीति को खतरा था।

6. सेना को शक्तिशाली बनाए रखना-- 

इस धारणा का समर्थक उस का दरबारी इतिहासकार (उतबी) था। उसका कहना है कि महमूद एक विजेता तथा साम्राज्यवादी सुल्तान था। साम्राज्यवादी विजेता को सदैव एक सुसंगठित एवं शक्तिशाली सेना की आवश्यकता होती है। सेना निरंतर युद्धों में भाग लेने से ही शक्तिशाली रहती है। अतः भारत को उसने एक को पोकरण स्थल समझा और वहां निरंतर आक्रमण कर वह अपनी सेना को विशाल एंव शक्तिशाली बनाए रखना चाहता था।
महमूद के समकालीन तथा मध्यकालीन इतिहासकारों ने तो उसके भारत आक्रमण के अधिकांश कारण आर्थिक व धार्मिक ही बताएं है। परंतु इन कारणों के आधार पर उसे धर्मांन्द्ध सिद्ध न कर उसके आक्रमणों को जिहाद का रूप दे दिया है । परंतु आधुनिक इतिहासकार उसके भारत आक्रमणों के पीछे राजनीतिक कारण भी बताते है। निसंदेह वह भारत में कट्टर मुसलमान के रूप में विख्यात है तथा उसकी लूट तथा क्रूरताओं के कारण वह पर्याप्त बदनाम भी है। पर यह भी किसी सीमा तक सही जान पड़ता है कि उसने भारत पर आक्रमण गजनी की गौरव को बढ़ाने तथा अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने की दृष्टि से भी किए थे।

महमूद के भारत पर भारत पर आक्रमण

सर हेनरी इलियट के मतानुसार महमूद नें भारत पर सत्रह आक्रमण किये । आधुनिक इतिहासकार भी उनके कथन से सहमत हैं। उसके यह हमले 1000 ई. से 1027 ई. तक होते रहे। यहां हम केवल उसके महत्वपूर्ण आक्रमणों का ही उलेख करेंगे।

1.जयपाल पर आक्रमण


महमूद ने भारत पर 1000 ई. मेंं अपने आक्रमण आरंभ किए । सर्वप्रथम उसने सीमांत के कुछ किलो पर अधिकार किया और उसके उपरांत उसनें जयपाल के विरुद्ध कूच किया। 27 नवंबर 1001 ई. में पेशावर के समीप महमूद का जयपाल के साथ घोर संग्राम हुआ और उसमें जयपाल की पराजय हुई।
राजा जयपाल अपने सम्बन्धियों के साथ बंदी बनाया गया तथा अपमानजनक तरीके से सुल्तान के समक्ष उपस्थित किया गया। उतबी लिखता है.....” उन्हें मजबूत रस्सियों से बांधकर पापियों की भाति सुल्तान के सम्मुख उपस्थित किया गया। ऐसा प्रतीत होता था मानो उन्हे नरक में भेजा जा रहा है।” जयपाल सुल्तान को अपार धन देकर मुक्त हुआ। पर जयपाल स्वाभिमानी तथा आत्म-प्रतिष्ठित नरेश  था। वह अपने इस अपमान को सहन नहीं कर सका इस कारण 1002 ई. में उसने स्वयं को अग्नि देव की भेंटे कर अपने पुत्र आनंदपाल को गद्दी पर बैठने का अवसर दिया ।

2.मुल्तान पर विजय--

डच की विजय के उपरांत जग महमूद गजनी लौटने को सिंधु नदी पार कर रहा था तो सुल्तान के सूबेदार अब्दुल फतेह दाऊद ने उसे लूटा। दाउद शेख हमीद लोदी का पोत्र था। 1005 ई. में महमूद उसे दंड देने की दृष्टि से मुल्तान की और रवाना हुआ। मुल्तान को 7 दिन तक घेरे रहने के उपरांत महमूद ने विजित किया तथा वहां के निवासियों के 20,000 दिरहम जुर्माने के रूप में वसूल किए। फतह दाऊद नहीं सुल्तान को वार्षिक कर देने का वचन दिया। धन लेकर सुल्तान गजनी लौट गया। इस समय गजनी लोट जाने का एक कारण यह भी था कि सुल्तान को सूचना मिली थी कि काशगर के सुल्तान ईलाख खान ने गजनी कर आक्रमण कर दिया है ।

3.लाहौर पर आक्रमण--

जब महमूद दाउद को दंडित करने मुल्तान पर आक्रमण कर रहा था तो आनंदपाल से उसका मुकाबला हो गया। वह आनंदपाल को उसकी उद्दण्डता का मजा चखाने की दृष्टि से रवाना हुआ । इसके अलावा महमूद अब इस निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि बिना पंजाब को अपने अधीन किए वह भारत में न तो आगे बढ़ ही सकता है और ना भारत का धन ही लूट सकता है । बैहन्द के समीप 1000 ई. में दोनों सेनाओं का मुकाबला हुवा । इस अवसर पर उतरी भारत के पडोसी राज्य के राजाओं ( उज्जैन, कालिंजर व कन्नौज) ने आनंदपाल की सहायता की। स्त्रियां भी इस समय देश की रक्षा में पीछे न रही । इतिहासकार हबीब लिखता है कि हिंदू स्त्रियों ने अपने आभूषण बेचकर दूर-दूर से रुपया भेजा । दीन स्त्रियों ने दिन भर चरखा कात कर या मजदूरी करके सैनिकों की सहायता के लिए पैसा भेजा । खोखर जाति के 30,000 नौजवान भी आनंदपाल की सहायता हेतु मैदान उतर आए । 40 दिन की प्रतीक्षा के उपरांत युद्ध आरंभ हुआ । खोकर लोगों ने मुसलमानों को इतने भंयकर रुप में कत्ल करना आरंभ किया कि महमूद ने गजनी लौटने का इरादा किया । दुर्भाग्यवश इसी समय आनंदपाल को उसके हाथी के बिगड़ जाने के कारण पराजय का मुंह देखना पड़ा । डॉ इश्वरी प्रसाद इस युद्ध के विषय में लिखते हैं कि इस युद्ध से समस्त देश में राष्ट्रीय भावना जागृत हो गई और क्रूर लोगों से अपने धर्म संस्कृति की रक्षा हेतु भारतवासी संगठित हो गए । भागते हुए 8000 राजपूत सैनिकों को मुसलमानों ने निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया । हेग की मान्यता है कि सेना की इस भगदड़ में महमूद के लिए भारत का मार्ग  खोल दिया और महमूद नगरकोट, जो धन के लिए विख्यात था, की और बढ़ा। नगरकोट में स्थित ज्वाला देवी के मंदिर से महमूद को अपार धनराशि प्राप्त हुई।  इस लूट के विषय में महमूद का इतिहासकर उतबी भी लिखता है कि ‘नगरकोट की लूट में इतना धन मिला कि जितने भी ऊंट महमूद को मिल सके उन पर लूट का माल लाद फिर भी जो बचा रहा उसे अफसरों में बांट दिया गया, केवल सिक्कों का मूल्य ही 70000 दिरहम था।’ डॉक्टर ए एल श्रीवास्तव का कहना है कि इस आक्रमण के समय वह आधुनिक अलवर तक आ गया और अलवर जिले में नारायणपुर को भी उस ने लूटा था।

4.मथुरा पर आक्रमण--

1018 ईस्वी में महमूद की दृष्टि मथुरा पर पड़ी जो भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि माना जाता है।  हिंदुओं का तीर्थ स्थान होने के कारण यह उस समय अनेक वैभवशाली  देवालयों से अलंकृत था।  इसके अलावा वह उस समय उत्तरी भारत में व्यापार का केंद्र ही बना हुआ था।  महमूद ने यहां के कलापूर्ण देवालयों को धराशाई कर दिया तथा उनकी अपार धनराशि को गजनी ले गया।  मथुरा नगर के सौंदर्य के विषय में इतिहासकार उतबी भी लिखता है “महमूद ने एक ऐसा नगर देखा जो योजना तथा निर्माण कला की दृष्टि से आश्चर्यजनक था।  ऐसा प्रतीत होता था मानो उसके भवन स्वर्ण के हैं। “  यहां सुल्तान का विशेष विरोध नहीं हुआ।

5.सोमनाथ पर आक्रमण--

महमूद का अंतिम आक्रमण सोमनाथ के देवालय पर हुआ।  यह देवालय काठियावाड़ में स्थित था तथा अपनी अतुल धनराशि के लिए विख्यात था।  1025 ईसवी के आरंभ में महमूद सोमनाथ पहुंचा।  डॉक्टर नंदकिशोर गौतम के मतानुसार महमूद ने मथुरा से गुजरात जाते समय मार्ग में जयपुर के समीप स्थित शिवाड़ पर भी आक्रमण किया था और वहां के शिव मंदिर को धराशाई किया था।  यह देवालय वहां पहाड़ी पर स्थित था।  शिवमूर्ति को वह खंडित नहीं कर सका।  देवालय की सुरक्षा हेतु भारी संख्या में हिंदू नरेश एकत्रित हुए।  परंतु यहाँ भी भाग्य ने हिंदुओं का साथ नहीं दिया। 50000 से भी अधिक स्त्री-पुरुषों को मुसलमानों ने मौत के घाट उतारा तथा उन्होंने देवालय की अतुल संपदा को लूटा। जब पुजारियों ने उनके देवता के हाथ नहीं लगाने का महमूद से अनुरोध किया तो महमूद ने प्रत्युत्तर में कहा कि मैं मूर्ति को बेचने वाला नहीं वरन मूर्तिभंजक हूं।  इस मंदिर की लूट से डॉक्टर ए एल श्रीवास्तव के मतानुसार महमूद को 2000000 दिनार से भी अधिक का धन प्राप्त हुआ।

6.महमूद का अंतिम आक्रमण--

राजपूतों के साथ और संघर्ष करने की भावना से वह सिंध के रेगिस्तान से गजनी लौटा। लौटते समय जाटों ने उसके धन को लूटने तथा उसे तंग करने का प्रयास किया था।  अतः जाटों को उनकी उद्दंडता का सबक सिखाने की दृष्टि से महमूद ने 1027  . में जाटों पर आक्रमण किया। यह महमूद का भारत पर अंतिम आक्रमण था।  इस युद्ध में उसने जाटों को बुरी तरह  परास्त किया।


continue .........

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