अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय । Historically famous Chittorgarh victory of Alauddin Khilji.

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अलाउद्दीन खिलजी की विजय (1297-1311 ईस्वीं) अलाउद्दीन खिलजी उत्तरी भारत की विजय (1297-1305 ईस्वीं)-- अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय व प्रारंभिक सैनिक सफलताओं से उसका दिमाग फिर गया था। महत्वाकांक्षी तो वह पहले ही था। इन विजयों के उपरांत वह अपने समय का सिकंदर महान बनने का प्रयास करने लगा। उसके मस्तिष्क में एक नवीन धर्म चलाने तक का विचार उत्पन्न हुआ था, परन्तु दिल्ली के कोतवाल काजी अल्ला उल मुल्क ने अपनी नेक सलाह से उसका यह विचार तो समाप्त कर दिया। उसने उसको एक महान विजेता होने की सलाह अवश्य दी। इसके अनंतर अलाउद्दीन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम उत्तरी भारत के स्वतंत्र प्रदेशों को विजित करने का प्रयास किया। 1299 ईस्वी में सुल्तान की आज्ञा से उलुगखां तथा वजीर नसरत खां ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहां का बघेल राजा कर्ण देव परास्त हुआ। वह देवगिरी की ओर भागा और उसकी रूपवती रानी कमला देवी सुल्तान के हाथ लगी। इस विजय के उपरांत मुसलमानों ने खंभात जैसे धनिक बंदरगाह को लूटा। इस लूट में प्राप्त धन में सबसे अमूल्य धन मलिक कापुर था, जो कि आगे चलकर सुल्तान का

Aramshah, Iltutmish -The rise of the slave dynasty in India. आरामशाह, इल्तुतमिश-भारत में गुलाम वंश का अभ्युदय।

आरामशाह (1210-1211ईस्वी )

कुतुबुदीन ऐबक की आकस्मिक मृत्यु से उसके अनुयायियों में भारी घबराहट उत्पन्न हो गई। उसके उच्च अदिकारियों ने उसके पुत्र आरामशाह को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। उसका राज्याभिषेक भी लाहौर में हुआ। दिल्ली के नागरिकों ने उसका समर्थन नहीं किया। इसका मूल कारण उसका दुर्बल व अयोग्य होना था। अतः आरामशाह अधिकांश समय लाहौर में ही रहा। लाहौर के तुर्क (Turks on India-Part 1) लाहौर को ही तुर्की सल्तनत की राजधानी बनाना चाहते थे। ये बात दिल्ली के नागरिकों को अच्छी न लगी और वे आरामशाह को गद्दी से उतारकर इल्तुतमिश को सुल्तान बनाने का प्रयास करने लगे। उनका कहना था कि तुर्की शासन की बागडौर ऐसे संकट के समय आरामशाह से नहीं संभाली जा सकती। वे इस पद के लिए बदायूं के सूबेदार इल्तुतमिश को उपयुक्त समझते थे। आरामशाह अपने इस विरोध को सहन नहीं कर सका। वह लाहौर स्थित तुर्की सरदारों को लेकर दिल्ली की और रवाना हुवा। दिल्ली में वहां नागरिकों के निमंत्रण पर इल्तुतमिश पहले ही आ चूका था। दोनों के बीच युद्ध हुवा और इस युद्ध में आरामशाह सम्भवतः काम आ गया। 

इल्तुतमिश (1211-1236 ईस्वी )

इल्तुतमिश 

आरम्भिक जीवन --

इल्तुतमिश अलबरी कबीले का तुर्क (Turks on India-Part 2) था। उसका पूरा नाम शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश था। उसकी विलक्षण बुद्धि का विकास उसके बाल्यकाल में ही आरम्भ हो गया था। इससे उसके अन्य भ्राताओं को ईर्ष्या हुई और उन्होंने उसे धूर्तता से घर से निकलवा दिया। इस असहाय अवस्था में वह एक व्यापारी द्वारा खरीद लिया गया। व्यापारी उसे बुखारा लाया और वह उसे यहाँ के सद्रे जहाँ के संबंधियों को बेच गया। उसके उपरांत वह हाजी बुखारी नमक व्यापारी द्वारा खरीद लिया गया और उस व्यापारी ने उसे जलालुद्दीन को बेच दिया। जलालुद्दीन उदार वृति का व्यक्ति था। उसने इल्तुतमिश को अपने पुत्र की तरह रखा। और उसकी शिक्षा का भी यथोचित प्रबंध किया। परन्तु व्यापारी जलालुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् इल्तुतमिश उसके उत्तराधिकारियों द्वारा कुतुबुद्दीन ऐबक को बेच दिया गया। अपने इस नवीन स्वामी को भी इल्तुतमिश ने अपनी प्रखर प्रतिभा से प्रसन्न कर लिया। इसके आलावा वह सैनिक शिक्षा में भी प्रवीण था। उसका स्वामी (कुतुबुदीन ऐबक) तो कुरूप था, जबकि वह स्वयं अति सुन्दर था। उसके सौंदर्य की प्रशंसा इतिहासकार मजूमदार ने भी की है। वह अदम्य उत्साही, पराक्रमी, साहसी एंव वीर था। इसी कारन मुहम्मद गोरी भी उससे प्रभावित था और उसने उसकी सिफारिश करते हुए कुतुबुद्दीन को लिखा था "इल्तुतमिश के साथ अच्छा व्यवहार करना। किसी दिन वह ख्याति प्राप्त करेगा।" अपनी सेवाओं व स्वामी भक्ति से वह अपने स्वामी कुतुबुद्दीन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ, जितना कि कुतुबुद्दीन अपने स्वामी मुहम्मद गोरी के लिए हुआ था। सन 1205 ईस्वी में वह खोखरों को दबाने में अपनी वीरता का प्रदर्शन कर चूका था। इससे उसे शीघ्र ही दस्ता से मुक्ति मिल गई और उसका उत्कर्ष शीघ्र गति से होने लगा शीघ्र ही वह 'अमीरे शिकार' पद पर नियुक्त किया गया। इसके उपरांत उसे ग्वालियर का किला सौंप दिया गया। शीघ्र ही वह बुलंद शहर का शासक नियुक्त हो गया। कुतुबुदीन उसकी सेवा व प्रतीभा से इतना प्रभावित हो गया कि उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया तथा उसे बदायूं का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

उसका राज्याभिषेक 

जिस समय कुतुबुदीन ऐबक की मृत्यु हुई थी,उस समय इल्तुतमिश बदायूं का सूबेदार था। यह सही है कि इल्तुतमिश कुतुबुदीन का वास्तविक उत्तराधिकारी न था, क्योंकि उसके आरामशाह पुत्र था। इल्तुतमिश केवल दिल्ली के नागरिकों के निमंत्रण पर ही दिल्ली आया और उसने वहां आरामशाह को युद्ध में परास्त कर दिल्ली में तुर्की सल्तनत प्राप्त की। इसीलिए कुछ इतिहासकारों ने उसे राज्य हड़पने वाला बताया है। परन्तु वास्तव में वह ऐसा नहीं था। उस समय गद्दी पर बैठने के लिए सुल्तान का पुत्र होना ही आवश्यक नहीं था। आरामशाह में सुल्तान बनने के गुणों का सर्वथा आभाव था, जबकि इल्तुतमिश में वे सब गुण विद्धमान थे। इसी कारण दिल्ली के नागरिकों द्वारा वह सुल्तान पद के लिए आमंत्रित किया गया था। इसके अलावा कुतुबुदीन भी इल्तुतमिश को ही सुल्तान बनाना चाहता था और उसे अपना पुत्र कहा करता था। इसी कारण उसे बदायूं की ज़ागीर प्रदान कर दी थी और उसके साथ उसने अपनी पुत्री का विवाह भी कर दिया था। इसके अलावा वह सुल्तान बनते समय दास भी न रहा था। इन्ही कारणों से 1211 ईस्वी में अमीरों ने उसे दिल्ली में कुतुबुदीन की रिक्त गद्दी पर बिठाया। 

उसकी प्रारंभिक कठिनाईयां 

डॉ ईश्वरीप्रसाद के मतानुसार दिल्ली का तख़्त इल्तुतमिश के लिए पुष्पों की शैया सिद्ध न हुआ। उसके सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत का अस्तित्व संकट-ग्रस्त हो चूका था। उसके अधिकार में उस समय केवल दिल्ली, बदायूं तथा बनारस से लेकर शिवालिक पहाड़ियों तक का प्रदेश था। पंजाब के तुर्क उसके विरोधी थे ही। कुतुबुदीन की मृत्यु के उपरांत मलिक नासिरुद्दीन कुबाचा ने मुल्तान पर अधिकार कर लिया था। उसने सिंध तथा देवल को भी अपने प्रभुत्व में कर लिया था। साम्राज्यवादी भावना से प्रेरित होने के कारण वह समुद्र तट के प्रदेशों पर भी अधिकार करने को लालायित हो रहा था तथा कोहराम व सरस्वती को अपने प्रभाव में कर चूका था। बंगाल व बिहार स्वतंत्र राज्य बन गए थे तथा लखनौती का सूबेदार अलीमर्दान खां स्वतंत्र शासक बन गया था। यही दशा राजपूत राज्यों की थी। जालोर तथा रणथम्बोर के राजा स्वतंत्र हो गये थे। अजमेर,ग्वालियर तथा दो-आब के प्रदेशों ने भी तुर्की प्रभाव से मुक्ति पा ली थी। यल्दौज पुनः भारत की और गिद्ध दृष्टि से देखने लगा था। इस प्रकार स्पस्ट है कि इल्तुतमिश के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत की अवस्था अत्यंत शोचनीय बानी हुई थी। 

कठिनाईयों का निवारण 

1. अमीरों का दमन  

इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम उन अमीरों की और ध्यान दिया जो या तो उसे सुल्तान मानने को तैयार नहीं थे और या जो उससे स्वतंत्र हो गए थे। अतः उसने पहले कुतबी और गुइजी अमीरों को दबाया। उनको दबाकर उसने ग्वालियर तथा मालवा के हिन्दू नरेशों की और ध्यान दिया। उनको युद्ध में परास्त कर उन्हें अपने अधीन बना लिया। अब वे उसका विरोध करने की स्थिति में न रहे। 

2. यल्दौज से संघर्ष 

यल्दौज को कुतुबुदीन ने दबा अवश्य दिया था, पर वह ग़जनी (Middle Ages. Part-1) का सुल्तान फिर भी बन गया था और वह पुनः दिल्ली को गजनी का ही भाग समझ रहा था। इल्तुतमिश ने इस प्रतिदव्द्वी से छुटकारा पाने के लिए बड़ी राजनीति से काम लिया। सर्वप्रथम उसने दिल्ली में आरामशाह के समर्थकों को समाप्त किया तथा शाही अंगरक्षकों को पूर्णतः अपने अधिकार में किया। इसके उपरांत उसने यल्दौज की और ध्यान दिया। भाग्यवश उसे अवसर भी प्राप्त हो गया। 1215 ईस्वी में जब यल्दौज ख्वारिज्म के शाह से परास्त हो गया तो उसने पंजाब में शरण लेने का प्रयास किया। इल्तुतमिश ने उसे 1216 ईस्वीं में तराइन के युद्ध में परास्त कर बंदी बना लिया तथा उसे बदायूं भेज दिया, जहाँ पर उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार अब गजनी का प्रमुख दिल्ली पर न रहा और इल्तुतमिश का एक प्रबल प्रतिद्वंद्वी समाप्त हो गया।

3. कुबाचा से संघर्ष  

सन 1220 ईस्वीं में मंगोल लोग सिंध तक पहुँच गए थे। उनके आगमन से कुबाचा की शक्ति पर बहुत प्रहार हुवा। उसके अधीन अब केवल सुल्तान व सिंध ही रह गए थे। इल्तुतमिश ने उसकी निर्बलता का लाभ उठाना चाहा। सर्वप्रथम उसने कुबाचा के समर्थक खिलजी तथा ख्वारिज्म के शाह को अपने पक्ष में कर लिया। तदुपरांत उसने 1228 ईस्वीं में दो सेनाएं भेजी -एक लाहौर से मुल्तान पर तथा दूसरी दिल्ली से उच्छ पर। इसका परिणाम यह निकला कि कुबाचा घबरा गया और भाग कर उसने सिंध के निचले भाग में स्थित भक्कर के किले में शरण ली। सुल्तान के सैनिकों ने उस किले पर भयंकर आक्रमण किया तो वह निराश होकर सिंधु नदी में कूद पड़ा और इस प्रकार अपनी जान से हाथ धो बैठा। उसकी मृत्यु के विषय में तवारीखे-मुबारक़शाही में भी यहीं लिखा गया है। इस विजय का परिणाम यह निकला कि कुबाचा का संकट अब सदैव के लिए दूर हो गया तथा मुल्तान व उच्छ दिल्ली राज्य में मिला लिये गये। सुल्तान की इस विजय से देवल का शासन सिनानुदीन चनिसर भी प्रभावित हुआ और उसने भी सुल्तान की आधीनता स्वीकार कर ली। साम्राज्य विस्तार के अलावा इल्तुतमिश को यहाँ धन भी भारी मात्रा में प्राप्त हुआ। 

चंगेज खां का आक्रमण 

1221 ईस्वीं में इल्तुतमिश को इन सब आपत्तियों से भी भयंकर आपत्ति का सामना करना पड़ा। इस वर्ष मंगोल जाती का नेता चंगेजखां (तमुजिन ) ख्वारिज्म के शाह के पुत्र जलालुद्दीन माँगबर्नी का पीछा करता हुवा भारत आ पहुंचा। मांगबर्नी ने सिंध सागर के दो-आब के ऊपरी भाग पर अधिकार कर लिया तथा खोखर सामंत से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इस खोखर सामंत की सहायता से मांगबर्नी ने कुबाचा को भी मार भगाया परन्तु चंगेजखां के भय से वह अब भी भयभीत था। चंगेजखां का जन्म 1155 ईस्वीं में ओमान नदी के तट पर पर दिलम बोल्डक स्थान पर हुवा था। कहते हैं कि जब वह पैदा हुआ था, तो उसकी मुठी में रक्त का पिण्ड था। अतः वह जीवन भर एक खुनी आदमी ही रहा। उसका समस्त जीवन संघर्ष में ही व्यतीत हुवा था और इस संघर्ष के जीवन काल में उसने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतरा था। 1203 ईस्वीं में वह खान घोसित किया गया था और अपने जीवन काल में अनेक युद्ध किये। उसमें वीरता व क्रूरता कूट-कूट कर भरी हुयी थी। मंगोल जाति  सुसंगठित तथा सुदृढ़ बनाने वाला वह पहला व्यक्ति था। समस्त मध्य एशिया में इसका आतंक छाया हुवा था। इस कारन इल्तुतमिश से सहायता प्राप्त करने की दृष्टि से मांगबर्नी ने उसके दरबार में अपना एक दूत भेजा। दूत ने जब सुल्तान के समक्ष यह वयक्त किया कि उसका स्वामी आपकी शरण में दिल्ली में रहना चाहता है तो इसके प्रत्युत्तर में इल्तुतमिश ने उस दूत का वध करवा दिया और शाह को कहला भेजा कि दिल्ली की गर्म जलवायु उसके अनुकूल नहीं है। इस पर शाह भारत छोड़ कर फारस की और भाग गया और उसके चले जाने पर मंगोल लोग भी भारत की भयंकर गर्मी से व्यथित हो शीघ्र ही भारत छोड़कर पश्चिम की और चले गए। यहाँ से लौटकर उसने दक्षिणी रूस व चीन के प्रदेशों को विजित किया। दस वर्षों तक निरंतर विजय प्राप्त करने के उपरांत वह अपने स्थान कुरिलताई लौटा और 60 वर्ष की आयु में 18 अगस्त 1227 ईस्वीं में वह इस लोक से विदा हो गया।  प्रकार भारत पर आई एक भीषण आपत्ति सुगमता से टल गई। इसके उपरांत सुल्तान ने पश्चिमी सुरक्षा को और भी दृढ कर दिया। इल्तुतमिश की इस नीति की समीक्षा विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न रूपों की है। कुछ ने लिखा है कि मांगबर्नी के दूत का वध करवाना सुल्तान के लिए अच्छा नहीं था। परन्तु अधिकांश इतिहासकारों ने सुल्तान की इस नीति को समयानुकूल बताया है। डॉ ए. एल. श्रीवास्तव लिखते है, "यदि इल्तुतमिश ने इससे भिन्न नीति अपनाई होती तो दिल्ली सल्तनत आरम्भ में ही नष्ट हो गई होती ....... " परन्तु कुछ इतिहासकार ऐसा भी मानते है कि चंगेजखां के भारत आने से विशेष हानि नहीं होती, क्योंकि वह धार्मिक विचारों में तुर्की सुल्तानों से अधिक सहिष्णु था और इस बात की सम्भावना थी कि मंगोलो के आने के उपरांत हिन्दू शक्तियां पुनः पनप जाती।

हिन्दू राजाओ का दमन 

जैसा की हमें विदित है कुतुबुद्दीन हिन्दू नरेशों (Middle Ages. Part-2) को पूर्णतया अपने अधिकार में नहीं ला सका था। अतः उसकी मृत्यु होते ही वे पुनः अपने को तुर्की साम्राज्य के प्रभाव से पूर्ण स्वतन्त्र समझने लगे और इल्तुतमिश के विरुद्ध अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। जब सुल्तान, मुसलमान अमीर तथा सूबेदारों के भय से मुक्त हो गया तो उसने विद्रोही नरेशों को दबाना आरम्भ किया। 1226 ईस्वीं में उसने रणथम्बौर तथा 1228 ईस्वीं में जालौर के राजपूत राजाओं को परास्त कर उन्हें अपनी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया। सन 1232 ईस्वीं में ग्वालियर राजा मलय वर्मा तथा कालिंजर का राजा त्रिलोक्य वर्मा इल्तुतमिश द्वारा परास्त हुये। इस प्रकार अन्य कई हिन्दू राजाओं को अपने अधीन कर उसने हिन्दू नरेशों के विरोध को समाप्त कर दिया। इसके उपरांत उसने 1234-35 ईस्वीं में मालवा पर आक्रमण किया और भील्सा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 300 वर्षों से निर्मित देवालय को धराशायी कर दिया। यह मंदिर 150 फुट ऊँचा था। इसके बाद वह उज्जैन गया और वहां महादेव काल के मंदिर को नष्ट कर दिया। 

बंगाल पर विजय  

कुतुबुद्दीन ऐबक ने बंगाल पर अपना अधिपत्य पुनः स्थापित कर लिया परन्तु उसकी मृत्यु पर वहां के सूबेदार अलीमर्दानखां ने अपने को पुनः स्वतंत्र घोषित कर दिया। वह एक अत्याचारी शासक था। इस कारण खिलजियों ने उसके विरुद्ध बगावत कर उसका वध कर दिया और बंगाल की गद्दी पर हुसामुद्दीन एवाज़ को बैठा दिया। हुसामुद्दीन भी एक महत्वाकांक्षी एवं साम्राज्वादी अमीर था। अतः उसने सुल्तान गियासुद्दीन की तो पदवी धारण की और बिहार को जीतकर अपना साम्राज्य विस्तार किया। बिहार को विजित करने के अतिरिक्त उसने अन्य समीप (जाजनगर, तिरहुत,कामरूप) के छोटे राज्यों से कर वसूल करना आरम्भ कर दिया। इल्तुतमिश बंगाल की स्वतंत्रता तथा उसके शासक के इस उत्कर्ष को सहन नहीं कर सका। अतः 1225 ईस्वीं में मंगोलों के भय से मुक्त हो जाने पर उसने बिहार को जीतने के लिए एक सेना भेजी। सुल्तान की विशाल सेना से एवाज़ इतना आंतकित हो गया कि उसने बिना युद्ध किये ही सुल्तान का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। इसके आलावा उसने युद्ध का हर्जाना  वार्षिक कर देना स्वीकार किया। इल्तुतमिश ने बिहार का सूबेदार मलिक जानी को नियुक्त किया परन्तु इल्तुतमिश ने बंगाल से ज्यूही पीठ फेरी कि एवाज़ ने पुनः बगावत की। इस पर सुल्तान को क्रोध आया और अपने ज्येष्ठ पुत्र नसीरुद्दीन को बगावत दबाने के लिए बंगाल भेजा। नसीरुद्दीन ने वहां विजय प्राप्त की। इस विजय के परिणामस्वरूप नसीरुद्दीन ही बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। अभाग्यवश नसीरुद्दीन भी शीघ्र ही इस लोक से विदा हो गया। इस पर 1230 ईस्वीं में सुल्तान ने पुनः बंगाल के विरुद्ध सेना भेजी। बालक युद्ध में काम आया। इस विजय के उपरांत सुल्तान ने बंगाल व बिहार अलग दो प्रान्त बना दिए और उनके सूबेदार भी अलग अलग नियुक्त किये। इस प्रकार उसने बंगाल की समस्या का हल किया। 

दो-आब नरेशों को दबाना 

दो-आब के हिन्दू नरेश भी इल्तुतमिश के लिए समस्या बने हुये थे। हमेशा स्वतन्त्र होने की लालसा में रहते थे। अतः जब सुल्तान तुर्की रक्षकों के विद्रोह को शांत  व्यस्त था तो दो-आब के कुछ नरेशों ने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। इसके परिणामस्वरूप बदायूं, कन्नौज व बनारस सुल्तान के प्रभुत्व से निकल गए। वहां के तुर्की सरदारों को उन्होंने मौत के घाट उतर दिया। सुल्तान इससे क्रुद्ध हुवा और दिल्ली के संकट से मुक्त होते ही उसने उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही प्रारम्भ कर दी। एक एक करके उसने उन सबको परास्त कर अपने अधीन कर लिया। अवध को भी भयंकर युद्ध के उपरांत अपने अधीन कर लिया वहां नसीरुद्दीन को सूबेदार नियुक्त किया। इन विजयों का परिणाम यह हुवा कि दो-आब के नरेश अब सुल्तान के शासन में बाधक रूप न रहे तथा दिल्ली का राज्य सुरक्षित हो गया।

खलीफा द्वारा स्वीकृति 

जैसा कि बताया जा चूका है कि  इल्तुतमिश को कई इतिहासकारों ने गुलामों का गुलाम बताया है। इसी कारण कई टर्की सरदार उसे अपना सुल्तान मानने को तैयार नहीं थे। यही बात खलीफा ने की। बगदाद  खलीफा भी उसे दिल्ली का सुल्तान मानने तैयार न था। कारण  स्थिति बड़ी दयनीय थी। परन्तु 1228 ईस्वीं में खलीफा अल-सुल्तानसिर बिल्लाह ने इल्तुतमिश को सुल्तान पद की मान्यता दी। इससे इल्तुतमिश वैधानिक शासक मान लिया गया तथा उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। तुर्की सरदार अब उसके विरोधी न रहे। मान्यता प्रदान करने के अलावा खलीफा ने सुल्तान के लिए शाही वस्त्र भी भेजे और उसे 'खलीफा का सहायक' पदवी से भी विभूषित किया।इससे इस्लामी दुनिया में इल्तुतमिश का बड़ा मान बढ़ा। अब सुल्तान ने निःशंकोच मुद्राओं पर अपना नाम अंकित करवाया तथा अपने नाम का खुतबा पढ़ा। टामस का कहना है कि उसके सिक्कों के साथ दिल्ली के पठानों के चांदी के सिक्कों का यथार्थ रूप में प्रचलन आरम्भ हुवा। 

इल्तुतमिश का राजत्व का सिंद्धांत 

इल्तुतमिश ने 24 वर्ष शासन अवश्य किया, पर इसका समस्त शासनकाल संघर्षों में व्यतीत हुआ।इस कारण वह प्रशासन की और अधिक ध्यान नहीं दे सका। फिर भी उसने व्यवस्थित शासन व्यवस्था स्थापित की। उसकी शासन व्यवस्था कुछ सिंद्धान्तों पर आधारित थी। प्रथम तो वह स्वेछाचारी शासक था। दूसरे उसकी इस्लाम धर्म में बड़ी आस्था थी। अतः उसका शासन धर्म पर आधारित था। वह तुर्की रिवाजों का भी आदर करता था। इस कारण उसके प्रशासन में तत्कालीन राजनीतिक तत्वों के अतिरिक्त तुर्की रिवाजों का भी प्रभाव था। खलीफा से मान्यता प्राप्त हो जाने के उपरांत वह खलीफा की और झुक गया था। इसी कारण उसने अपनी मुद्राओं पर खलीफा का नाम अंकित करवाया तथा उसे प्रसन्न करने की दृष्टि से उसने अपने प्रशासन में धर्म को अधिक महत्व दिया। 

उसका शासन प्रबंधन

इल्तुतमिश से पूर्व दिल्ली राज्य सैनिक शासन की वयवस्था थी। प्रमुख नगरों में सेनाये राखी जाती थी। स्थानीय शासन भारतीय परम्पराओं पर आधारित था परन्तु इल्तुतमिश ने सैनिक शासन व्यवस्था को बदल दिया। उसने शासन के पद और उनकी प्रतिष्ठा को सर्वोपरि समझा। इसके उपरांत उसने स्वामिभक्त कर्मचारियों की नियुक्ति की और ध्यान दिया,क्योंकि सुल्तान बनते ही उसने अनुभव किया कि कुतुबुद्दीन के समय के कर्मचारी उसके प्रति स्वामिभक्त नहीं हैं। इस समस्या का समाधान करने के लिए के लिए उसने चालीस गुलामों की नियुक्ति की। राज्य के उच्च पद उन्हें ही को सौंपे गये। कुतुबुद्दीन के समय के बहुत से विरोधी कुतबी तथा गुईची तो युद्ध में मरे गए और जो शेष रहे उन्हें पदच्युत कर दिया गया। इस प्रकार सुल्तान ने उच्च पदों पर केवल अपने विश्वासपात्र तथा स्वामिभक्त अधिकारी ही रखे। इल्तुतमिश की इस नीति से उसकी प्रतिष्ठा तो बढ़ी ही,  पर साथ में शासन में उसका प्रभुत्व छा गया तथा नियमित रूप से शासन संचालित होने लगा। इसके अलावा वह अधिकारीयों  नियुक्ति योग्यता के आधार पर करता था। इस कारण भारतीय मुसलमान भी उसके समय उच्च पदों पर आधीन हो गए। मिनहाज़ सिराज को उसने अपना प्रधान काज़ी नियुक्त किया। 

           इल्तुतमिश की शासन वयवस्था  बड़ा महत्व था। इक्ता दो प्रकार की होती थी छोटी इक्ता व बड़ी इक्ता। छोटी इक्ता में आधे गांव व छोटे गावं होते थे, जबकि बड़ी इक्ता में विस्तृत प्रदेश होते थे। छोटी इक्ता वेतन के स्थान पर दी जाती थी और उनका राजस्व इक्ता पाने वाले को मिलता था। बड़ी इक्ता मालिक व अमीरों को दी जाती थी। इक्ता का यहाँ अर्थ एक प्रकार की जागीर से है। पर यह राजपूतकालीन सामंत वयवस्था से भिन्न थी, क्योंकि इक्ता दार एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिये जाते थे। 
           दूसरा जो इल्तुतमिश ने दूरदर्शिता का कार्य किया, वह था पहाड़ी तथा जंगली क्षेत्र में अपने तुर्की को बसाना। खोखर लोगों में तुर्क बसाये गए तथा दो-आब के पर्वतीय भागों में ऐसा ही किया गया। इसके परिणामस्वरूप इन जंगलों में विद्रोही जातियों की स्वतंत्रता नष्ट हो गई और वह अब मनचाहे समय पर बगावत करने से स्वतन्त्र नहीं रहे। 
              तीसरी इसने न्याय की और भी समुचित ध्यान दिया। इब्नबतूता ने लिखा है कि शाही महल के द्वार पर दो सिंहों की मूर्ति राखी रहती थी, जिनके मुख में लगी जंजीर दबाने से घंटी बजती थी। फरियाद करने वाला इसके माध्यम से सुल्तान को फरियाद करता था। न्याय करने हेतु उसने दिल्ली नगर में काज़ी तथा अन्य नगरों में अमीरदाद नियुक्त कर थे। उनकी अपील प्रधान काजी व सुल्तान स्वयं के पास होती थी। वह प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसने अरबी ढंग से सिक्के चलाये। सिक्के चंडी व सोने के होते थे। इन सिक्कों के माध्यम से राज्य  का व्यापार तो बढ़ा ही, साथ में जान साधारण की आस्था भी सुल्तान के पार्टी बढ़ी। 

मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक 

कई इतिहासकारों की धारणा है कि मुस्लिम साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश ही था। मोहम्मद गौरी भारत में एक विजेता के रूप में आया था और उसके विजित प्रदेशों की रक्षा उसके वाइसराय कुतुबुद्दीन ऐबक  ने की थी। कुतुबुद्दीन अपने शासन के अल्पकाल में युद्ध ही करता रहा। उसे शासन को संगठित करने का अवसर ही नहीं मिला। परन्तु इल्तुतमिश ने उतरी भारत को जीतकर अपने राज्य को संगठित किया। एक सुवय्वस्थित शासन व्यवस्था उसके शासन काल में ही स्थापित हो पाई। इस कथन का समर्थन डॉ ईश्वरी टोपा ने भी किया है। इसके अलावा कुतुबुद्दीन का ध्यान लाहौर पर ही केन्द्रियभूत रहा था। इल्तुतमिश प्रथम मुस्लिम शासक था, जिसने सच्चे अर्थ में दिल्ली को अपने राज्य की राजधानी बनाया। इससे पूर्व का सुल्तान कुतुबुद्दीन स्वय अपने आप शासक बना था तथा उसके सरदार उसे सुल्तान मानने को तैयार नहीं थे। वह केवल अपनी शक्ति के सहारे शासक बना था। इसी कारण उसने अपने शासन काल में न कोई सिक्के चलाये और न अपने नाम का खुतबा पढ़ा। तत्कालीन अरब यात्री इब्नबतूता ने भी उसे एक स्वतन्त्र शासक नहीं माना है। फ़िरोज़ के खुतबे में बादशाहों की सूचि में भी उसका नाम नहीं मिलता। डॉ आर. एस. त्रिपाठी की भी इसी प्रकार की मान्यता है। परन्तु इल्तुतमिश को बगदाद के खलीफा ने दिल्ली का सुल्तान स्वीकार किया था। इसी कारण उसने अपने नाम के सिक्के भी चलाये और ख़ुतबा भी पढ़ा। इन्ही कारणों से इतिहासकार डॉ एस.आर. शर्मा कहते हैं कि इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। 
            इतिहासकारों की मान्यता है कि यह इल्तुतमिश के सद्प्रयत्नों का परिणाम था कि तुर्की राज्य में अराजकता समाप्त हुई और शांति की स्थापना हुई। यदि वह नहीं होता तो सम्भवतः गुलाम वंश समाप्त हो जाता। इसीलिए सर वूल्जले हेग, डॉ के. दत्त तथा डॉ आर. सी. मजूमदार उसे गुलाम वंश का सबसे महान शासक समझते है। इसी का समर्थन करते हुए लेनपूल लिखते हैं, "गुलामवंश राज्य का वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश है, जिसको कि सुदृढ़ करने के लिए कुतुबुद्दीन अधिक समय तक जीवित नहीं रहा था।" डॉ आर. सी. मजूमदार ने इसका समर्थन इस प्रकार किया है --"इल्तुतमिश दिल्ली की तुर्की सल्तनत का जो 1290 ईस्वीं तक चलती रही, सबसे महान शासक उचित रूप से माना जा सकता है।" इसके अलावा वह दिल्ली के नागरिकों द्वारा सुल्तान का पद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया गया था। ऐसे उदाहरण विश्व इतिहास में बिरले ही मिलते हैं। वह अपनी बुद्धिमता तथा योग्यता से अपने समस्त प्रतिद्वंदियों को समाप्त करने में सफल हुआ। राजपूत राज्य तुर्क राज्य में विलीन हो गए। परन्तु इस पर अन्य इतिहासकार सहमत नहीं होते। वे यह स्थान बलबन को देते है। यह तो सत्य ही है इल्तुतमिश गुलामवंश में एक श्रेष्ठ सुल्तान हुआ तथा भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नीवं को दृढ करने वाला  था। 

उसकी मृत्यु तथा चरित्र  

जैसा कि इल्तुतमिश शासन काल से स्पष्ट होता है, उसका समस्त जीवन संघर्ष एवं लड़ाइयों में व्यतीत हुआ। इस कठोर परिश्रम के कारण उसका स्वास्थ्य शीघ्र ही ख़राब हो गया। वह सन 1236 ईस्वीं में बीमार पड़ा। हक़ीम उसका इलाज नहीं कर सके और उसी वर्ष 29 अप्रेल को इस दुनियां से हो गया। इससे पूर्व इस्लामियां लोग इसकी धार्मिक नीति से तंग आकर उसको मारने का प्रयास कर चुके थे। पर वे अपने प्रयत्न में असफल रहे। 
              इल्तुतमिश एक महान वीर तथा सफल सेनानायक था। अपने राज्य के समस्त विद्रोहियों पर विजय पाना उसकी इस बात का स्पष्ट उदाहरण है। मिनहाज़ सिराज ने वीरता में उसकी तुलना अली कर्रार (मुसलमानो के चौथे खलीफा का नाम ) से की है। परन्तु इल्तुतमिश इतिहास में केवल एक विजेता के रूप में नहीं आता, वरन वह एक उच्च कोटि का प्रशासक भी मन जाता है। उसने राज्य में व्याप्त अराजकता को समाप्त कर संगठित तथा व्यवस्थित राज्य की स्थापना की। धार्मिक मामलों में एक अंधविश्वासी के रूप में वह हमारे सामने आता है। परन्तु विद्वान् एवं पवित्र मनुष्यों का स्वागत करने को वह सदैव तत्पर रहता था। इसलिए मिनहाज़ सिराज लिखता है --"इल्तुतमिश के समान कोई भी शासक  दयालु, सहानुभूतिपूर्ण, विद्वानों तथा वृद्धो का आदर करने वाला नहीं हुआ ......।" विजेता होते हुए भी वह कला प्रेमी था। कुतुबमीनार को पूर्ण कराने का कार्य उसी का था और जिसके विषय में इतिहासकार लेनपूल ने बड़ी प्रशंसा की है। हिन्दू स्थापत्य कला से भी उसे अनुराग था। इन सब उपर्युक्त विषेशताओं से मुग्ध हुआ उसका समकालीन इतिहासकार मिनहाज़ सिराज लिखता है ---"आज तक ऐसा कोई  हुआ जिसमें इतना आदर्श, धर्मनिष्ठा, दरवेशों एवं मौलवियों, मुल्लाओं के प्रति इतनी श्रद्धा रही हो।" उसकी  धर्म-निष्ठां के विषयों में तो अनेक कहानिया प्रचलित है। इल्तुतमिश शेख कुतुबुद्दीन में बड़ी आस्था रखता था। जब शेख दिल्ली आया तो सुल्तान ने उससे महल में ही रहने का अनुरोध किया। जब शेख नहीं माने तो वह स्वयं उनसे मिलने सप्ताह में दो बार जाता था। इतिहासकार आर. सी. मजूमदार व राय चौधरी की मान्यता है कि कुतुबमीनार का नाम इसी कुतुबुद्दीन के नाम पर रखा गया था न कि शासक कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर। 
                 इल्तुतमिश एक सफल प्रशासक ही नहीं, वरन दूरदर्शी एवं राजनीतिज्ञ भी था। ख्वारिज्म के शाह को मंगोलों के विरुद्ध सहायता न देकर तथा पर्वतीय व जंगली प्रदेशों में तुर्की लोगों को बसाकर उसने अपूर्व दूरदर्शिता का परिचय दिया। इल्तुतमिश साम्राज्य विस्तारक होने के साथ साथ साम्राज्य को सुदृढ़ कर्त्ता भी था। कुतुबुद्दीन की भांति उसने केवल साम्राज्य ही नहीं बढ़ाया, वरन  नीवं को दृढ भी किया। उसका राज्य कुतुबुद्दीन की भांति अस्थायी सिद्ध न हुआ। इसलिए वह अपने वंशजों के लिए एक सुरक्षित राज्य छोड़कर मरा था। इससे स्पष्ट है कि उसने तुर्क साम्राज्य की सुरक्षा के लिए अकथनीय सेवा की। फरिश्ता ने उसे कार्यशील, योग्य तथा उच्च कोटि का शासक बताया है। इल्तुतमिश शरणार्थियों को भी शरण देने को सदैव उद्धत रहता था। इनके अलावा बगदाद का वजीर फखरूदीन रसामी को भी इसने अपने यहाँ शरण दी थी। 

इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी 

इल्तुतमिश स्वयं एक गुलाम था पर अब वह अपने साम्राज्य को अपने वंशजों के अधिकार में रखना चाहता था। अतः उसने अपने जीवनकाल में ही अपने ज्येष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन को अपने राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। नासिरुद्दीन एक योग्य प्रबंधक तथा वीर सेनानी था। परन्तु अभाग्यवश उसकी मृत्यु अपने पिता इल्तुतमिश के समय में ही हो गई। पुत्र की मृत्यु पर सुल्तान को बहुत दुःख हुआ। राज्य के उत्तराधिकारी का प्रश्न जटिल बन गया था, क्योंकि वह शेष पुत्रों को विलासी होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी बनने के योग्य नहीं समझता था। अतः उसने अपने राज्य के उत्तराधिकारी पद पर अपनी पुत्री को नियुक्त किया। 

रुकनुद्दीन फिरोजशाह 

यधपि इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपना उत्तराधिकारी अपनी पुत्री रजिया को बना था। परन्तु सुल्तान के अमीर एक स्त्री को अपना सुल्तान मानने को तैयार नहीं थे। अतः सरदारों ने उसके दूसरे पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज को सुल्तान बनाया। परन्तु वह शासन पद के लिए सर्वथा अयोग्य सिद्ध हुआ। वह विलासी एवं निर्बल था। राज्य के खजाने को उसने खाली कर दिया। इतिहासकार लेनपूल उसका चरित्र चित्रण इस प्रकार करता है ---"फिरोजशाह प्रथम सुन्दर, दयालु, उदार हृदय, ऐयासी, मुर्ख नौजवान था, जो अपना धन गवैयों, मसखरों और बुरी आदतों में उडाता था। शराब के नशे में चूर होकर वह अपने हाथी पर झूमता हुआ प्रशंसकों की भीड़ पर चमचमाती सोने की मुहरें फेंकता हुआ चलता था। 
                इस निक्कमे शासक का शासन उसकी माता तुर्कान ने चलाना आरम्भ कर दिया। वह एक तुर्क दासी थी और रनवास की पटरानी थी। परन्तु वह एक महत्वाकांक्षी तथा क्रूर स्त्री थी। माता और बेटे दोनों मिलकर इल्तुतमिश के दूसरे पुत्र कुतुबुद्दीन की निर्दयता से आंखे निकलवा ली। इससे सरदार सुल्तान के विरुद्ध हो गए। राज्य की सुरक्षा संकट में पद गई तथा राज्य में अराजकता फैल गई। इसलिए 9 नवम्बर 1236 ईस्वीं को उसका सरदारों ने वध कर दिया। 


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