'गुलाम वंश का अनुपयुक्त होना' --
डॉ ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि इस वंश का नाम गुलाम इसलिए पड़ा, क्योंकि इस वंश के शासक गुलाम थे। मेजर रेवर्टी तथा फरिस्ता की धारणा है कि ऐबक का अर्थ छोटी व निर्मल अंगुली वाले से होता है। पर डॉ ईश्वरी प्रसाद ने ऐबक शब्द का अर्थ गुलाम से लिया है। वे लिखते हैं "इस प्रकार वह हिंदुस्तान का शासक बना और उसने एक शासक वंश की नींव डाली जो उसके नाम से विख्यात है। परन्तु डॉ ए.एल. श्रीवास्त्व इस कथन से सहमत नहीं हैं। वे लिखते हैं, "इसके शाब्दिक विरोध तो हैं ही, इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी गलत है। 1206 ईस्वीं से 1290 ईस्वीं तक के समय में दिल्ली पर एक ही नहीं, वरन तीन वंशों ने शासन किया और इन वंशों के संस्थापक कुतुबुदीन ऐबक, इल्तुतमिस और बलबन एक ही पूर्वज की संतान न थे। केवल इन के संस्थापक ही अपने प्रारंभिक जीवन में गुलाम रह चुके थे,उनके सदस्य नहीं। वे भी सुल्तान होने के बहुत पहले से गुलाम नहीं रह रहे थे और कुतुबुदीन ऐबक को छोड़कर सबने गद्दी पर बैठने के पूर्व ही अपनी दासता से मुक्ति प्राप्त कर ली थी।
कुतुबुदीन ऐबक (1206-10 ईस्वीं )
बाल्यकाल--
गुलाम वंश का प्रथम शासक कुतुबुदीन ऐबक था। वह तुर्किस्तान का रहने वाला था और उसके माता पिता तुर्क थे। उसे निशापुर के काज़ी फकरूदीन ने खरीद लिया था। फकरूदीन एक उदार वृति का मनुष्य था। अतः उसने कुतुबुदीन का ललन पालन अपने पुत्र की भांति किया। उसकी निगरानी में कुतुबुदीन घुड़सवारी व शिक्षा पाने में भी समर्थ रहा। परन्तु जब फकरूदीन का देहांत हो गया तो उसके उत्तराधिकारियों ने कुतुबुदीन को एक सौदागर के हाथों बेच दिया। वह सौदागर कुतुबुदीन को गजनी ले आया। गजनी में उस पर मुहम्मद गोरी की दृष्टि पड़ी। सुल्तान ने उसकी कुरूपता का तनिक भी ध्यान न करते हुए उसे खरीद लिया। शनै-शनैः वह अपने गुणो के कारन सुल्तान का विश्वास पात्र बन गया। शीघ्र ही वह सुल्तान के द्वारा 'अमीर आखुर' (घुड़शाल का अफसर) नियुक्त किया गया। भारत विजय में भी कुतुबुदीन अपने स्वामी मुहम्मद गोरी के साथ था। तराइन के युद्ध में उसने अपनी अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया था। इसी कारण जब 1192 ईस्वीं में मुहम्मद गोरी
पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर गजनी लौटा तो उसने कुतुबुदीन को वहां का प्रबंध सौंप दिया। इस प्रकार तुर्किस्तान का एक साधारण व्यक्ति कुतुबुदीन भारत का वाइसराय बन गया।
जब मुहम्मद गोरी गजनी लौट गया तो अजमेर व मेरठ में विद्रोह हुए। उन विद्रोह को दबाने वाला यह कुतुबुदीन ऐबक ही था। 1194 ईस्वीं में अजमेर में दूसरी बार विद्रोह हुआ। उस विद्रोह को भी ऐबक ने दबा दिया। इसके उपरांत 1195 ईस्वीं में उसने कोइल (अलीगढ) पर अधिकार कर लिया। 1197 ईस्वीं में कन्नौज पर अधिकार कर लेने के उपरांत उसने राजस्थान की और ध्यान दिया। सिरोही व मालवा के कुछ भागों पर भी उसने अधिकार कर लिया। परन्तु यहाँ उसका प्रभाव स्थायी सिद्ध न रहा। 1202-03 ईस्वीं में उसने बुंदेलखंड पर धावा बोल दिया। वहां के राजा परमर्दि देव को परास्त कर उसने कालिंजर, महोबा और खुजराहो पर अधिकार कर लिया। इसी काल में उसके सहायक सेनानायक इख़्तयारूदीन ने बिहार व बंगाल के कुछ भागों को विजित कर लिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि उसने अपने स्वामी के जीवन काल में ही उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था तथा अपनी स्वामी-भक्ति का परिचय दे चूका था। इसका प्रमाण हमें अब्दुल्ला द्वारा रचित 'तवारीखे मुबारक शाही' में मिलता है।
राज्यारोहण--
डॉ ए.एल. श्रीवास्त्व की धारणा है कि मुहम्मद गोरी की यह इच्छा थी कि भारत में उसका उत्तराधिकारी कुतुबुदीन ऐबक ही बने, क्योंकि 1206 ईस्वीं में उसने उसे नियमित रूप से अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर मल्लिक की उपाधि से विभूषित कर दिया था। जब मुहम्मद की मृत्यु का समाचार विदित हुवा तो लाहौर के नागरिकों ने कुतुबुदीन को राजशक्ति धारण करने के लिए आमंत्रित किया। डॉ ईश्वरी प्रसाद की धारणा है कि "तुर्की अमीरों तथा सेना-नायकों ने उसको सुल्तान चुना और गोरी के शासक ने भी उसके अधिकारारुढ़ होने में अपनी सहमति प्रकट की।" सब तथ्यों से स्पस्ट है कि कुतुबुदीन ऐबक को अपने स्वामी के मरने पर भारत की राजसत्ता प्राप्त करने में कठिनाई हुई। तवारीखे मुबारक़शाही से ज्ञात होता है कि 1205 ईस्वी में कुतुबुदीन दिल्ली से शुभ नगर लाहौर को रवाना हुआ और 24 जून 1206 ईस्वी में वह लाहौर में सिंहासनारूढ़ हुआ। सिंहासन पर बैठने के उपरांत उसने सामंतो व जनसाधारण को इतनी उदारता से पैसा लुटाया कि आम जनता उसे 'लाख-बख्स' कहने लगी। परन्तु अपने अभिषेक के समय उसने स्वयं को केवल 'मालिक' तथा सिपहसालार की पदवियों से ही विभूषित किया। सुल्तान की उपाधि उसने धारण नहीं की।
प्रारम्भिक कठिनाइयाँ तथा नीति --
ऐबक को
भारत का शासक बनते ही अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। मुहम्मद गोरी की मृत्यु के उपरांत उसका साम्राज्य उसके गुलामों द्वारा आपस में बाँट लिया गया था। गजनी का स्वामी ताजुद्दीन यल्दौज और मुल्तान का स्वामी नसीरुद्दीन कुबाचा बना। स्वयं कुतुबुदीन के अधिकार में दिल्ली थी और लखनौती का शासन इख्तियारुद्दीन के हाथ में था। यल्दौज जो गजनी का स्वामी बन बैठा था, दिल्ली को भी गजनी का ही एक भाग समझता रहा। परन्तु ऐबक ने यल्दौज को सन 1208 ईस्वीं में परास्त कर दिया और इस प्रकार उसने अपने एक प्रबल शत्रु को दबा दिया। यल्दौज ने अपनी पुत्री का विवाह भी ऐबक के साथ कर दिया। ऐबक ने यल्दौज की प्रभुता कभी दिल्ली पर स्वीकार नहीं की। इसका एक परिणाम यह भी निकला कि वह दिल्ली सल्तनत का विकास स्वतंत्र रूप से कर सका। नसीरुद्दीन कुबाचा के विरोध को समाप्त करने के लिए कुतुबुदीन ने उसके साथ अपनी बहिन की शादी कर दी। इन सरदारों के विरोध के अतिरिक्त कुतुबुदीन के समक्ष दूसरी कठिनाई यह थी कि गुलाम होने के कारन मुसलमान उसे गद्दी का वास्तविक अधिकारी नहीं समझते थे। इतिहासकार इब्नबतूता उसे प्रभुता-सम्पन शासक नहीं मानता परन्तु फ़िरोजकोट के सुल्तान महमूद ने उसे मान्यता-पत्र प्रदान किया। कुछ भी हो कुतुबुदीन ने शनैः-शनैः अपनी दूरदर्शिता तथा शासन करने की योग्यता से इन कठिनाईयों पर शीघ्र ही विजय पा ली और वह उत्तरी भारत का प्रभुत्व संपन्न शासक बन बैठा।
इसके अलावा उस समय भारत का वातावरण उसके अधिक अनुकूल नहीं था। मुहम्मद गोरी के मरने की सुचना पाते ही
राजपूत नरेशों ने भारत से तुर्कों के प्रभुत्व को समूल नष्ट करने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया। शासक त्रैलोक्य वर्मा ने कालिंजर पर पुनः अपना अधिकार कर लिया और उसने तुर्कों अपने राज्य से बाहर कर दिया। परिहारों ने ग्वालियर से तुर्को को निष्काषित करके उस पर अपना अधिकार कर लिया। जयचंद के उत्तराधिकारी हरिश्चंद्र ने गहड़वालों की शक्ति को पुनः गठित करने का प्रयास किया और उसने बदायूं तथा फर्रुखाबाद क्षेत्रों से तुर्की पदाधिकारियों को हटाना आरम्भ किया। कई छोटे राज्यों ने भी दिल्ली को कर भेजना बंद कर दिया। बंगाल के सेनवंशी शासक ने बंगाल के पश्चिम में अपने साम्राज्य को विस्तृत करने का प्रयास किया। इस प्रकार स्पष्ट है जब कुतुबुदीन दिल्ली का सुल्तान बना तो भारत की भी राजनीतिक अवस्था उसके लिए अच्छी नहीं थी।
कठिनाईयों का निवारण --
अपने प्रबल प्रतिद्वंदियों कुबाचा व यल्दौज को उसने उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर शांत करने का प्रयास किया। बंगाल की समस्या में उसने हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। अंत में अलीमर्दान खां ने उसकी अधीनता स्वीकार करके कर देना आरम्भ कर दिया था। गद्दी प्राप्त करने के समय कुतुबुदीन एक गुलाम की अवस्था में ही था। सामंत लोग उसे सुल्तान मैंने को राजी नहीं थे। अतः उसने प्रारम्भ में सुल्तान के स्थान पर मालिक व सिपहसालार की उपाधियों से ही अपने आप को आभूषित किया तथा उसने अपने नाम के सिक्के भी जारी नहीं किये। इसके आलावा उसने अपने नाम का खुत्बा भी नहीं पढ़ा। उसने स्वयं क वैधानिक सुल्तान भी 1208 ईस्वी में माना,जबकि उसकी स्वीकृति गजनी से गयासुद्दीन गोरी ने भेज दी थी। इस स्वीकृति के साथ उसको गजनी से राज चिन्ह तथा ध्वज भी प्राप्त हुए। इन सबका परिणाम यह हुवा कि उसके सामंत उसे अब सुल्तान मानने लग गए और उसके प्रशासन में उन्होंने कठिनाईया उत्पन्न करना छोड़ दिया। भारत के राजपूत राजाओं को वह पूर्णरूपेण नहीं दबा सका। उनके साथ उसने केवल दबाव डालने की नीति का अनुसरण किया।
कुतुबुद्दीन एक शासक के रूप में --
ऐबक एक योग्य एंव दूरदर्शी शासक था। यद्यपि उसने केवल चार वर्ष ही शासन किया था, तथापि उसने एच. जी. केनी के मतानुसार को अल्पकाल में ही एक कुशल योद्धा एंव प्रमाणित कर दिखाया। उसने प्रथम दूरदर्शिता का कार्य यह किया कि अपने विपक्षियों को वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके दबा दिया। इसका शासन सेना तथा धर्म पर आधारित था। राजधानी में एक शक्तिशाली सेना के अतिरिक्त उसने हिंदुस्तान के सभी महत्वपूर्ण नगरों में रक्षा सेनाये नियुक्त की। इसके परिणाम स्वरूप उसके राज्य में शांति स्थापित हो गई और व्यापार भी विकसित हुआ। उसके शासन काल में सड़कों पर चोर व डाकूओं का भय नहीं रहा। उसके समय के प्रसिद्ध इतिहासकार 'हसन निज़ामी' ने उसके शासन के विषय में लिखा है, "देश का राज्य प्रबंध अच्छा था। देश में शांति थी और सब लोग बड़े सुखी थे। सबके साथ न्याय का व्यवहार किया जाता था।" उक्त इतिहासकार ऐबक से इतना प्रसन्न था कि उसने शासन की प्रशंसा में यहाँ तक लिखा कि उसके राज्य में भेड़ और भेड़िया एक घाट पानी पीते थे।
स्थानीय शासन उसने भारतीय पदाधिकारियों पर ही छोड़ दीया था। राजस्व नियम भी पुराने ही बने रहे। इस आधार पर डॉ ईश्वर टोपा मानते हैं कि कुतुबुदीन के समय में भारत का प्रशासन गजनी से भिन्न हो गया, क्योंकि वह भारत की समस्याओं को अपनी समस्या समझता था। केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन चलने हेतु अधिकारी नियुक्त किये गए। उनमें अधिकांश सैनिक थे। राजधानी तथा प्रत्येक विजिट प्रांतों में काज़ी नियुक्त किया गया। डॉ ए. एल. श्रीवास्तव की मान्यता है कि उसके समय में न्याय व्यवस्था बद्धी, भोंडी तथा अव्यवस्थित थी।
उसकी विदेश नीति --
कुतुबुदीन को सबसे अधिक संकट मध्य एशिया की और से था। ख्वारिज्म के शाह की दृष्टि गजनी व दिल्ली दोनों पर थी। अतः कुतुबुदीन ने सर्वप्रथम ख्वारिज्म के शाह को ऐसी परिस्थिति में दिया कि वह गजनी और दिल्ली पर अधिकार न कर सके। जैसा कि ऊपर लिखा है कि कुबाचा तथा यल्दौज ये दोनों उसके प्रतिद्वंदी थे। कुबाचा तो वैवाहिक संबंधो के उपरांत शांत हो गया था। पर यल्दौज अभी मुहम्मद गोरी के समस्त साम्राज्य का स्वामी बनने का प्रयास कर रहा था। उसने गजनी पर अधिकार कर लिया। वंहा के लोगों ने उसे गजनी छोड़ने पर बाध्य कर दिया। इस पर वह भाग कर पंजाब की और आया। कुतुबुदीन ने वीरता उसका सामना किया और उसके पंजाब में पैर नहीं जमने दिए। गजनी की खली सुल्तान के लिए समस्या बन गयी। उसने सोचा की ख्वारिज्म का शाह गजनी का स्वामी न बन बैठे। अतः कुतुबुदीन गजनी की और गया और वहां पर उसने अधिकार भी कर लिया। बदायूंनी तथा डॉ ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार उसने वहां चालीस दिन राज्य किया, जबकि अब्दुल्ला तवारीख़े मुबारक़शाही में केवल चार दिन उसका राज्य करना बताया गया है। कुतुबुदीन ज्योहीं दिल्ली लौटकर आया कि यल्दौज ने गजनी पर अधिकार कर लिया। भारत की समस्यांओं ने कुतुबुदीन को पुनः गजनी की और ध्यान नहीं देने दिया। यल्दौज ने भी इसके बाद कुतुबुदीन को किसी प्रकार तंग नहीं किया। इस प्रकार कुतुबुदीन ने यल्दौज के हिंदुस्तान पर प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयत्नों को असफल बना दिया और दिल्ली को मध्य एशिया की राजनीती में फसने से बचा लिया।
कुतुबुदीन की मृत्यु तथा उसका चरित्र
गुलाम वंश का संस्थापक तथा
मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक केवल चार वर्ष उपरांत ही लाहौर में (चौगान) पोलो खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण 1210 ईस्वी के नवम्बर माह में इस दुनिया से सदैव के लिए विदा हो गया। उसकी मृत्यु के विषय में मिनहाज़ सिराज 'तबक़ाते नासिरी' में प्रकार लिखता है --"अब उसकी मृत्यु का समय भी निकट आ गया था।" 607 हिजरी संवत (1210 ईस्वी ) में वह गेंद खेलते समय घोड़े से गिर पड़ा। घोडा भी उस पर गिर पड़ा। काठी का सामने का भाग उसके सीने में लग गया और उसकी मृत्यु हो गई। " वास्तव में वह एक चतुर शासक था। उसने सदैव शासन योग्यता तथा न्याय निष्पक्षता से किया। वह अपनी प्रजा की भलाई के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था। प्रशासन में वह उदारता भी बरतता था। उसके समय में यातायात के मार्ग चोर डाकुओं के भय से मुक्त थे। डॉ एस.आर. शर्मा है कि वह सभी हिन्दुओं के साथ दयालुता का व्यवहार करता था। वह उच्च कोटि का सेना नायक था। उसमें सैन्य सञ्चालन की अभूतपूर्व योग्यता थी। सैनिक प्रतिभा के कारण ही दिल्ली का शासक बना था और एक गुलाम की स्थिति से उठाकर इतना उच्च स्थान प्राप्त कर सका। अपनी निर्भीकता और सैन्य पराक्रम के कारण ही वह किसी युद्ध में परास्त नहीं हुवा। उसकी सैनिक योग्यता के विषय में डॉ ए.एल. श्रीवास्तव लिखते है, "उसमें उच्च कोटि का साहस और निर्भीकता थी और वह उन योग्य एंव प्रतिभाशाली गुलामों में से था, जिनके कारण मुहम्मद गोरी को भारत में इतनी सैन्य सफलता प्राप्त हुयी। "यही कारण था कि वह समस्त युद्धों में विजयी हुआ। यह सत्य है कि उसमें धार्मिक भावना उग्र रूप से विद्धमान थी और उसने कई मंदिरों को धराशाही कर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण भी करवाया। पर उसने यह सब कुछ केवल युद्ध के समय ही किया था। अन्यथा हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार उदार था। इसलिए उसने राज्य को मित्रों से भर दिया तथा शत्रुओं से खली कर दिया।
दान देने की भावना उसमें इतनी प्रबल थी कि वह 'लाखबख्स' की उपाधि से विभूषित किया गया था। मिनहाज़ सिराज ने उसे इसीलिए एक वीर एंव उदार ह्रदय सुल्तान बताया है। इसके साथ ही स्थापत्य कला में भी उसका अनुराग था। कहते है कि दिल्ली में स्थित कुतुबमीनार का निर्माण इसी ने आरम्भ करवाया था। इसके अतिरिक्त उसने कुछ मस्जिदें भी बनवाई थी। ऐसा कहा जाता है कि अजमेर का ढाई दिन का झोंपड़ा भी इसी के द्वारा बनाया गया था। यह सब होते हुए भी डॉ स्मिथ ने इस शासक की गणना, मध्य एशिया के क्रूर तथा निर्दयी विजेताओं में की है।
Nice article you have shared such a important information about the who was qutubuddin aibak keep writing.
ReplyDeleteThank you Yuvraj for your comment. I will try.
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