अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय । Historically famous Chittorgarh victory of Alauddin Khilji.

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अलाउद्दीन खिलजी की विजय (1297-1311 ईस्वीं) अलाउद्दीन खिलजी उत्तरी भारत की विजय (1297-1305 ईस्वीं)-- अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय व प्रारंभिक सैनिक सफलताओं से उसका दिमाग फिर गया था। महत्वाकांक्षी तो वह पहले ही था। इन विजयों के उपरांत वह अपने समय का सिकंदर महान बनने का प्रयास करने लगा। उसके मस्तिष्क में एक नवीन धर्म चलाने तक का विचार उत्पन्न हुआ था, परन्तु दिल्ली के कोतवाल काजी अल्ला उल मुल्क ने अपनी नेक सलाह से उसका यह विचार तो समाप्त कर दिया। उसने उसको एक महान विजेता होने की सलाह अवश्य दी। इसके अनंतर अलाउद्दीन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम उत्तरी भारत के स्वतंत्र प्रदेशों को विजित करने का प्रयास किया। 1299 ईस्वी में सुल्तान की आज्ञा से उलुगखां तथा वजीर नसरत खां ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहां का बघेल राजा कर्ण देव परास्त हुआ। वह देवगिरी की ओर भागा और उसकी रूपवती रानी कमला देवी सुल्तान के हाथ लगी। इस विजय के उपरांत मुसलमानों ने खंभात जैसे धनिक बंदरगाह को लूटा। इस लूट में प्राप्त धन में सबसे अमूल्य धन मलिक कापुर था, जो कि आगे चलकर सुल्तान का

Due to the defeat of Rajputs in Medieval India. मध्यकालीन भारत में राजपूतों की पराजय के कारण।

मध्यकालीन भारत में राजपूतों की पराजय के कारण

महाराण प्रताप 

पृथ्वीराज चौहान भारत का अंतिम हिंदू सम्राट माना जाता है। अतः उसकी पराजय का परिणाम यह हुआ कि
भारत में सदैव के लिए हिंदू साम्राज्य नष्ट हो गया। उसके पतन के उपरांत जयचंद का विनाश और उसके अनन्तर
अन्य राजपूत नरेशों का भी विनाश
हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि राजपूत जो भारत में युद्ध करने
में सर्वाधिक वीर तथा रणबांकुरे होते थे, वे एक के बाद एक तुर्कों
से परास्त होते ही चले गए। आपके मस्तिष्क में यह विचार आना
स्वाभाविक ही है कि इस पराजय के कारण क्या थे। राजपूतों की
पराजय के कारणों पर भी हमें विभिन्न इतिहासकारों के विभिन्न
विचार मिलते हैं। पाश्चात्य इतिहासकारों ने तो यह सिद्ध करने का
प्रयास किया है कि राजपूत नरेश मध्य एशिया के तुर्कों से युद्ध
कौशल में हीन थे। इसी प्रकार का सिद्धांत तत्कालीन मुस्लिम
इतिहासकारों ने प्रतिपादित किया है और उन मुस्लिम इतिहासकारों
का ही सहारा पाश्चात्य इतिहासकारों ने लिया है। परंतु आधुनिक
इतिहासकारों के अन्वेषण से अब यह सिद्धांत अधिक तथ्य पूर्ण एंव
तर्कपूर्ण नहीं रहा

पाश्चात्य धारणा की सार्थकता

पाश्चात्य धारणा के प्रतिपादन में दो अंग्रेज इतिहासकार उल्लेखनीय
हैं। लेनपूल तथा वी.ए.स्मिथ लेनपूल का कहना है कि "आक्रमणका-
रियों में संगठन तथा एकता थी और हिंदुओं में फूट थी। आक्रमण-
कारी उत्तर के रहने वाले थे और हिंदू दक्षिण के। आक्रमणकारी
बहादुर जाति के और अच्छी जलवायु के निवासी थे। उनमें इस्लाम
धर्म के लिए जोश था और धन की लूट का लालच था। यही हिंदू
तथा आक्रमणकारियों में भेद था।" इसी धारणा का समर्थन करते
हुए विंसेंट स्मिथ ने लिखा है "आक्रमणकारी अच्छे योद्धा थे क्योंकि
वे उत्तर के शीत प्रदेश से आए थे। ये मांसाहारी थे तथा युद्ध कला
में दक्ष थे।" इन दोनों इतिहासकारों के कथन से स्पष्ट होता है की
आक्रमणकारी मुसलमान भारत के राजपूतों से इसलिए विजयी
हुए क्योंकि वे उत्तरी शीत प्रदेश के निवासी थे। मांस भक्षण करते
थे तथा वे युद्ध कौशल में भी राजपूतों से अधिक दक्ष थे।

उक्त दोनों इतिहासकारों के कथनो में कितना सत्य है इसे
जांचने के लिए हमें तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का आश्रय
लेना चाहिए। अरब के मुसलमान सिन्ध में आ गए परंतु 712
ईस्वी से लेकर 1000 ईस्वी तक भारत पर कोई भी मुसलमान
आक्रमण नहीं हुआ। सिंध के आसपास के प्रदेशों के हिंदू लगभग
300 वर्षों तक अरब के मुसलमानों से संघर्ष करते रहे और उन्हें
आगे बढ़ने से रोकते रहे। इतने दीर्घकाल तक किसी भी देश के
निवासियों ने मुसलमानों से संघर्ष नहीं किया। अरब के मुसलमानों
ने उत्तरी अफ्रीका, मिश्र, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल पर अधिकार
किया था। उन देशों के लोग भी तो शीत जलवायु के थे तथा मांस
भक्षण करते थे। फिर भी वे मुसलमानों से शीघ्र ही परास्त हो गए
तथा अपनी संस्कृति का भी मुस्लिम संस्कृति में आत्मसात कर
बैठे। भारत में तो मुसलमान विजेता एवं शासक के रूप में
सदियों रहे पर तब भी समस्त हिंदुओं को मुसलमान बनाने में
असमर्थ रहे। इसके अलावा वे हिंदू संस्कृति को भी पूर्णरूपेण
प्रभावित नहीं कर सके। टाइटस का यह कथन "इस्लाम पर
हिंदू धर्म का जितना प्रभाव पड़ा उतना हिंदू धर्म पर इस्लाम
का नहीं और यह आश्चर्य की बात है कि अब भी हिंदू धर्म
निरपेक्षता तथा आत्मविश्वास के साथ अपने पथ पर उसी
प्रकार अग्रसर है जैसे इन आक्रमणों के पहले चल रहा था"
सही एवं तर्कपूर्ण जान पड़ता है।

पश्चिमी देशों के इतिहासकारों ने मुस्लिम विजय का एक
कारण मुसलमान का हष्ट पुष्ट होना भी बताया है। उनका
कहना है कि एक पठान 10 भारतीय सैनिकों के समान होता
है। पर उनके इस कथन में कितना सत्य है यह हम पाकिस्तान
के साथ लड़े गए युद्ध 1965 व 1971 की घटनाओं से आंक
सकते हैं। इजराइल के यहूदी तो हमारे मारवाड़ी की भांति
व्यापारी हैं। परंतु उन्होंने भी आज अरब के मुसलमान के
वंशजों के छक्के छुड़ा रखे हैं। चारों और मुस्लिम देशों से
घिरा होने पर भी उसने मुस्लिम देशों की नाक में नकेल डाल
रखी है।

इस दृष्टांत से स्पष्ट होता है कि अच्छा योद्धा होना न तो
शारीरिक गठन और न शीत जलवायु पर ही निर्भर करता है।
अच्छे योद्धा गुण कुछ और ही होते हैं जो भारतीय सैनिकों में
सदियों से विद्यमान होते चले आए थे और आज भी विद्यमान
हैं। दक्षिण भारत के मराठा गर्म जलवायु के रहने वाले नाटे
कद के होते थे। उन्होंने औरंगजेब के नेतृत्व में युद्ध करने
वाली मुगल सेना को लोहे के चने चबा दिए थे। स्वयं मुस्लिम
इतिहासकार गुलाम अली तथा मुर्तज़ा हुसैन को यह स्वीकार
करना पड़ा कि 10 मराठे 20 से भी अधिक मुसलमानों के
लिए पर्याप्त है।

यह सब लिखते हुए भी हमें यह तो स्वीकार करना
पड़ेगा ही कि भारत के हिंदू नरेश तुर्कों से परास्त हुए और
परास्त होने के कुछ कारण तो होने चाहिए। आधुनिक युग के
विख्यात इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने भी अपने
महान शोध कार्य के उपरांत राजपूत नरेशों की पराजय के
निम्नलिखित कारण बताएं हैं।

1. आपस की फूट

जदुनाथ सरकार की मान्यता है कि देश का सबसे महान शत्रु
घर का भेद तथा देशवासियों की आपसी फूट होती है। सातवीं
शती से पूर्व अफगानिस्तान तथा सिंध के हिन्दू शेष भारत से
विलग समझे जाते थे। युवान च्यांग द्वारा प्रस्तुत भारत वर्णन से
विदित होता है कि उस काल में उत्तरी पश्चिमी सीमावर्ती
हिंदुओं को असभ्य समझा जाता था। सच बात तो यह है कि
वहां के हिंदुओं में ग्रीक, पार्थियन, हूण तथा कुषाण आदि
लोग सम्मिलित थे। अतः यह स्वाभाविक ही था कि उनके
रिवाज, रहन-सहन पंजाब, दोआब व राजस्थान के लोग से
भिन्न हो। इस कारण जब सिंध पर अरब के मुसलमानों ने
तथा अफगानिस्तान व पंजाब की सीमा पर महमूद गजनवी
व मुहम्मद गौरी ने आक्रमण किए तो शेष भारत के लोगों ने
उसमें विशेष रूचि नहीं ली और जब वे आक्रमणकारी आगे
बढ़े तो यहां राजाओं के आपसी झगड़े ले बैठे। जयचंद और
पृथ्वीराज की फूट तथा उसके परिणाम तो सर्वविदित है।

2. मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरांत उत्तरी भारत में शक्तिशाली शक्ति का अभाव

चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को परास्त कर भारत की उत्तरी-
पश्चिमी सीमा को यूनानियों से मुक्त करा लिया था। सम्राट
अशोक ने भी अफगानिस्तान तक अपना पूर्ण प्रभाव रखा
था। परंतु मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरांत उत्तरी भारत में
ऐसी शक्ति का अभाव हो गया था। गुप्त वंश के नरेशों ने
उत्तरी भारत में शक्तिशाली सरकार की स्थापना अवश्य
की थी परंतु भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमा पर सुरक्षा का
पर्याप्त प्रबंध नहीं कर सके। यही बात हर्ष के शासन के
साथ लागू होती है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत
की उत्तरी पश्चिमी सीमा पर कई गणराज्य व स्वतंत्र राज्य
स्थापित होते चले गए और उन्होंने सामूहिक सुरक्षा की
व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं दिया इस कारण से परास्त
हुए।

3. ब्राह्मणवाद

हिंदू की पराजय का तीसरा कारण डॉ सरकार ने
ब्राह्मणवाद बताया है। ब्राह्मणवाद के प्रभाव से प्रथम परिणाम
तो यह निकला कि प्रशासन में ब्राह्मणों ने उच्च पद प्राप्त
कर लिए। मंत्री पद पर पहुंच कर उन्होंने अपने स्वामी
राजपूत नरेशों को मौत के घाट उतार दिया। इससे प्रशासन
में अस्थिरता आ गई। काबुल राजा के मंत्री ब्राह्मण लल्ल ने
अपने स्वामी लागतोरमन क्षत्रिय राजा को कारावास में डाल
कर सत्ता हथिया ली। परंतु उससे सत्ता हथियाये एक वर्ष भी
नहीं हुआ था कि वह सफरीद याकूब से परास्त हो गया।
इसका फल यह हुआ कि अफगानिस्तान जो सदियों से
भारत का अंग रहता आया था। अब सदा के लिए मुस्लिम
आक्रमणकारियों के प्रभाव में चला गया। सिंध का राजा
दाहिर भी ब्राह्मण ही था वह चच का पुत्र था और चच सिंध
के राजा सहसराय द्वितीय का मंत्री था, जो अपने स्वामी का
वध कर सिंध का स्वामी बन बैठा था। इसके अलावा
ब्राह्मणवाद के बढ़ते प्रभाव से बौद्ध धर्म वाले भी हिंदू
विरोधी हो गए थे।

4. सर्वसाधारण का नैतिक पतन

राष्ट्र निर्माण में जनता का नैतिक जीवन चरित्र महान सहायक
सिद्ध होता है। परंतु मध्य युग के आरंभ में भारत के लोगों का
नैतिक पतन हो गया था। लोगों में विलासिता की भावना घर
करती जा रही थी। उनकी इस भावना का प्रतिबिंब हम
कोणार्क,खजुराहो के मंदिरों में देख सकते हैं। पृथ्वीराज
चौहान की पराजय का एक यह भी कारण बताया जाता है
कि वह संयोगिता को प्राप्त कर विलासी अधिक हो गया
था। ऐसी परिस्थितियों में हिंदु नरेशों का परास्त होना
स्वाभाविक ही था।
इन कारणों के अलावा हम और भी
कारण निर्धारित कर सकते हैं। उनको हम सामान्य कारणों
की श्रेणी में वर्गीकृत कर सकते हैं। कारण निम्नलिखित हैं।

(अ) सामाजिक

भारत को विभिन्न जातियों और धर्मों का अजायबघर माना
जाता है। भारत में जातियां जितनी अधिक संख्या में हैं, वे
विश्व के किसी अन्य देश में नहीं है। इन विभिन्न जातियों ने
भारतीय समाज का रूप की विभिन्न प्रकार का बना दिया
था। सब जातियों की उस समय यह मान्यता हो गई थी कि
देश की सुरक्षा केवल राजपूतों के कंधों पर ही है। अतः
युद्ध विद्या राजपूतों के सिवा और कोई वर्ग नहीं सीखता था।
यह सत्य है कि उस काल में राजपूत तलवार के धनी,
चरित्रवान एंव वीर योद्धा होते थे। पर उनमें शनै शनै
विलासिता भी अपना घर कर रही थी। इस कारण वे निर्बल
होते जा रहे थे। इसके अतिरिक्त समाज में ऊंच-नीच की
भावना ने दृढ़ता से घर कर लिया था। ऊंच-नीच की
भावना ने समाज में से एकता तथा भ्रातृत्व की भावना को भी
नष्ट कर फूट के बीज बो दिए थे। इसी कारण भारत के
लोगों के दिलों से राष्ट्रीय भावना विलुप्त होती जा रही थी।
इसके विपरीत मुसलमान एक जाति होने के कारण
एकता के सूत्र में बंधे हुए थे। उनमें ऊंच-नीच की भावना
विद्यमान नहीं थी। इसलिए उनमें भ्रातृत्व था और वे एक
होकर राजपूतों पर आक्रमण करते थे। यही कारण था कि
वे हिंदू नरेशों पर विजय पा सके।

(ब) धार्मिक

भारत वासियों की आत्मा धर्म मानी जाती है। हम धर्म के
नाम पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकते हैं। परंतु उस
समय धर्म में मिथ्या आडम्बर के घुन लग रहे थे। इस मिथ्या
आडम्बर के कारण ही हिंदू धर्म का हास हुआ और उसके
पतन पर बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इन
दोनों धर्मों के आविर्भाव से भारत में अहिंसा की भावना
प्रबल रूप धारण करने लगी। इसके अतिरिक्त तत्कालीन
भारत में प्रचलित भक्ति मार्ग ने भारतवासियों के दिलों में
क्रोध, अन्याय तथा अत्याचार के प्रति असहिष्णुता, घृणा के
स्थान पर करुणा व कोमल भावों का सूत्रपात करना आरंभ
कर दिया था। क्षत्रिय धर्म का अर्थ भी इस समय गलत
लगाया जाने लग गया था। इस कारण भारत वासियों में
अपने शत्रु से लड़ने में जोश वह जोश व उत्साह शेष न
रहा था जो मुसलमानों में धार्मिक विश्वास के कारण उस
समय बना हुआ था।

(स) सैनिक

राजपूतों की पराजय का प्रमुख कारण सैनिक था। राजपूत
लड़ना जानते थे पर उनकी युद्ध विधि मुसलमानों की युद्ध
विधि की तुलना में त्रुटिपूर्ण थी। राजपूतों ने मुसलमानों का
सामना अपने पुरातन ढंग से ही किया। डॉ स्मिथ का कहना
है कि "यद्धपि स्वदेश की रक्षा के भाव से परिपूर्ण हिंदू राजा
साहस और वीरता में किसी प्रकार भी मुसलमानों से कम
नहीं थे, तथापि युद्ध कला में वे निश्चित रूप में उनसे हीन थे।
इसलिए वे अपनी रक्षा नहीं कर सके।" केवल राजपूत ही
उस समय भारत के सैनिक होते थे। अतः देश की तीन
चौथाई से भी अधिक जनता देश की सुरक्षा में रुचि नहीं
रखती थी। राजपूत भी केवल अपने राजा के लिए युद्ध
करते थे ना कि भारत लिए। अतः जैसे ही राजा युद्ध में
धराशाई होता था या किसी कारणवश युद्धभूमि से भाग
जाता, तो समस्त राजपूत सेना समर भूमि से पीठ दिखा
जाती थी, चाहे वह जीत ही क्यों न रही हो। इसके अलावा
हिंदू राजा उस समय स्थाई सेना नहीं रखते थे। केवल
अपने अधीन जागीरदार व सहयोगी नरेशों की सेना पर
ही वे अवलंबित रहते थे। इस कारण उन्हें अपनी शक्ति
का वास्तविक ज्ञान नहीं हो पाता था। इसके अलावा भी
राजपूत नरेश कई बार युद्ध में भारी गलती कर बैठते थे।
उदाहरण के लिए हम राजा दाहिर को ही लें। जब अरब
के मुसलमानों ने देवल कराची पर आक्रमण किया तो
राजा ने उसकी सुरक्षा के लिए सेना नहीं भेजी। जब
मोहम्मद बिन कासिम ने घोड़ों की बीमारी के कारण
सिंध पर 2 माह तक आक्रमण नहीं किया तो राजा दाहिर
भी उसकी प्रतीक्षा करता रहा। उसने मुसलमानों की
दयनीय अवस्था का लाभ नहीं उठाया। स्वाभिमानी होने
के कारण राजपूतों के एक नेता चुनने में बड़ी कठिनाई
होती थी। युद्ध विद्या में अधिक पारंगत ना होने के कारण
वे केवल आत्मरक्षा युद्ध ही करते थे। शत्रु के विनाश का
वे कोई प्रयास नहीं करते थे और जब वे युद्ध भूमि को कूच
करते तो अपनी समग्र शक्ति समर भूमि में ही लगा दिया
करते थे। वे सुरक्षा के लिए कुछ सैनिक (सुरक्षा पंक्ति) पीछे
नहीं छोड़ते थे। इसके विपरीत मुसलमानों का सैन्य
संगठन अच्छा था। वे घोड़ों की पीठ पर युद्ध करते थे। जो
हाथी और रथों से अधिक द्रुतगामी होते थे।

(द) राजनीतिक

मुसलमानों से राजपूतों के हारने के राजनीतिक कारण
भी थे। भारत उस समय कई छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त
था। उनके राजा अपने को पूर्ण स्वतंत्र समझते थे। वे एक
दूसरे से द्वेष रखते थे। इस विषय में डॉक्टर श्रीवास्तव
लिखते हैं "प्रत्येक राजा को अकेले युद्ध करना पड़ता था।
मानो वह केवल अपने और अपने राज्य के लिए लड़ रहा
हो, संपूर्ण देश के लिए नहीं। घोर संकट के समय भी हमारे
शासक मिलकर अपनी सुरक्षा के लिए आक्रमणकारी
के विरुद्ध युद्ध ना कर सके।" एक इतिहासकार ने कहा
है- "इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि राजपूत-
राज्य शहाबुद्दीन गौरी के आगे उसी प्रकार परास्त हो गए
जिस प्रकार नेपोलियन के आगे जर्मन राज्य परास्त हो
गए थे।

आक्रमणों के प्रभाव

मोहम्मद गौरी के आक्रमण तूफान की भांति सिद्ध हुए। उसने
भारत में जमकर हमले किए और वह जब भारत से
लौटा था तो अपने विजित प्रदेश के प्रबंध की व्यवस्था
अपने आदमियों के अधीन करके जाता था। इसलिए यह
स्वाभाविक था कि उसके आक्रमण के प्रभाव भी भारत पर
चिरस्थाई होते। हमें उसके आक्रमणों के प्रभाव पर
निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं।

(१) राजपूत शक्ति का हास

राजपूत राजाओं की शक्ति उसके आक्रमणों से सदैव के
लिए समाप्त हो गई। इस काल के उपरांत वे स्वतंत्र
शासकों के रूप में शासन नहीं कर सके। ईश्वरी प्रसाद
कहते हैं "राजपूतों में से ऐसा कोई राजा नहीं बचा जो
मुसलमानों का सामना करने के लिए अपने झंडे के नीचे
अन्य राजपूत राजाओं को संगठित करता।"

(२) हिंदू साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया

बहाउद्दीन मकबरा, जूनागढ़

मोहम्मद गौरी के आक्रमण से भारत में हिंदू साम्राज्य
सदैव के लिए विनिष्ट हो गया। पृथ्वीराज चौहान अंतिम
हिंदू सम्राट माना जाता है और उसका विनाश तराईन
की दूसरी लड़ाई में मोहम्मद गोरी ने कर दिया। उसकी
मृत्यु के उपरांत दिल्ली पर कोई भी हिंदू नरेश अपना
शासन नहीं चला सका।

(३) मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना

मोहम्मद गौरी को भारत में मुस्लिम साम्राज्य का
संस्थापक माना जाता है। वास्तव में वही प्रथम मुस्लिम
आक्रमणकारी था, जिसका उद्देश्य भारत को लूटना था
-- वरन उस पर अपना राज्य स्थापित करना भी था। उसने
भारत के जिन प्रदेशों को जीता, उनमे से अधिकांश पर
उसने अपना शासन स्थापित किया। उसके शासनकाल में
पानीपत की तीसरी लड़ाई (1192 ईस्वी से 1771 ईस्वी) तक
भारत में मुस्लिम राज्य ही रहा। यह पूर्णत: 1858
में समाप्त हुआ।

(४) हिंदू धर्म का हास

इसके आक्रमणों के परिणाम स्वरूप हिंदू धर्म का ह्रास
आरंभ हो गया। मुस्लिम शासन काल में हिंदू धर्म के
विकास में अनेक बाधाएं प्रस्तुत की जाती थी। इसके
कारण हिंदुओं में अपने धर्म के प्रति उदासीनता उत्पन्न
हुई। अंत में संतों के प्रयास से वह चिंता दूर हुई।

(५) आर्थिक क्षेत्र तथा कला के क्षेत्र में प्रभाव

मोहम्मद गौरी जब भारत से अतुल्य धनराशि ले गया
तो इसके परिणाम स्वरूप देश की आर्थिक दशा का
सोचनीय होना स्वाभाविक था। इसके अतिरिक्त गोरी
के आक्रमण का मूर्ति कला तथा स्थापत्य कला पर बुरा
प्रभाव पड़ा। आक्रमणों के समय विशाल एवं विख्यात
मंदिर मुसलमानों द्वारा धराशाही कर दिए गए। उनके
नास्तिक होने के कारण मूर्तिकला का विकास अवरुद्ध
हो गया। इसके अलावा मुहम्मद भारत के विभिन्न
कलाकारों को अपने साथ गजनी ले गया। उनके जाने
से गजनी को सुंदर रूप प्राप्त हुआ। जबकि भारतीय
कला का विकास अवरुद्ध हो गया।

मोहम्मद गौरी की मृत्यु

भारत की विजय ने मोहम्मद गौरी की साम्राज्य सुधा
को और भी प्रबल बना दिया। इसीलिए उसने अपने
साम्राज्य को और विस्तृत करना चाहा। इस उद्देश्य की
पूर्ति के लिए उसने अब अपनी निगाह पश्चिमी एशिया
पर डाली। 1204 ईस्वी में उसने ख्वारिज्म पर आक्रमण
किया। पर वहां के शासक अलाउद्दीन मोहम्मद से उसे
अंधखुई पर करारी मात खानी पड़ी। इस पराजय से
मोहम्मद गौरी का आगे बढ़ना ही अवरुद्ध नहीं हुआ
वरन उसकी इस पराजय का उसके भारतीय प्रदेशों
पर बुरा प्रभाव पड़ा। उसके साम्राज्य में चारों और
विद्रोह होने लगे। मुल्तान उसके हाथ से निकल गया
और उसी का अधिकारी ऐबक बक वहां का स्वामी
बन बैठा। मुल्तान का निकल जाना मोहम्मद की
निर्बलता का स्पष्ट प्रतीक था। उसकी इस निर्बलता
से खोखर और भी उच्छृखल हो गए और वे भी
विद्रोही हो गए। उनके विद्रोह को दबाने के लिए
मोहम्मद गोरी पुनः भारत आया। नवंबर 1205 ईसवी
में उनको परास्त कर जब वह गजनी लौट रहा था तो
15 मार्च1206 को दमयक नामक स्थान पर उसके
शत्रुओं ने उसे मौत के घाट उतार दिया। उसका वध
करने वाले कौन थे यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। कुछ
इतिहासकारों उन्हें खोखर लोग बताते हैं, जबकि
अन्य इतिहासकारों उन्हें शिया मुसलमान कहते हैं।

मोहम्मद का चरित्र

मुसलमान इतिहासकारों द्वारा मोहम्मद गौरी की
प्रशंसा की गई है। तत्कालीन इतिहासकार मिन्हाज
सिराज ने मोहम्मद गौरी की उदारता तथा उसके
विधा प्रेम की प्रशंसा की है। फरिश्ता के अनुसार
"मोहम्मद गौरी एक न्यायप्रिय शासक, ईश्वर से डरने
वाला तथा प्रजा की भलाई का ध्यान रखने वाला था।
" यह हो सकता है कि मुस्लिम इतिहासकारों ने उसे
बढ़ा चढ़ा दिया हो पर तो भी मोहम्मद गौरी का
इतिहास में उच्च स्थान है। वह एक उच्च
सेनानायक तथा योग्य प्रशासक था। भारत में आने
वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों में प्रथम मुसलमान
शासक था, जिसने अपनी योग्यता प्रशासनिक
कुशलता से भारत में मुस्लिम साम्राज्य को अंकुरित
किया। श्रीवास्तव ने मोहम्मद गौरी को भारत में तुर्की
साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक बताया है। वह
राजनीति में भी अच्छी सूझ बूझ से काम लेने वाला था।
उसने राजपूत नरेशों की पारंपरिक फूट का भली
भांति अवलोकन किया तथा उनकी अवस्था का लाभ
उठाकर ही भारत में मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करने
में सफल हुआ था। यद्यपि अधिकतर उसके आकांक्षाएं
पश्चिम की ओर थी परंतु फिर भी उसने भारत में जो
कार्य किया व ठोस था। यह सत्य है कि वह महमूद
के समान धर्मांध नहीं था, फिर भी उसने हिंदू
देवालयों तथा हिंदू धर्म को नष्ट करने का पर्याप्त प्रयत्न
किया। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि उसने यह
घृणित कार्य केवल युद्ध के समय ही किए थे। प्रसिद्ध
इतिहासकार लेन पुल का कथन है "वह वास्तविक
शासक तथा गजनी साम्राज्य का विस्तार करने वाला
था। इन बातों के अलावा मोहम्मद गौरी मानव चरित्र
का अच्छा पारखी था। उसने अपने गुलामों में भी
स्वामी भक्ति की भावना उत्पन्न कर दी। उसके
चरित्र के विषय में डॉक्टर एल श्रीवास्तव लिखते हैं
"मोहम्मद केवल सैनिक ही नहीं था, संस्कृति से भी उसे
प्रेम था। फखरुद्दीन राजी तथा नमाजी उरूजी आदि
कवि उसके दरबार में संरक्षण पाते थे।

इन गुणों के साथ साथ उसमें कई मानवीय गुण भी

थे। वह एक अच्छी प्रकृति का शासक था। वह दृढ़ प्रतिज्ञ
था। वह कोरी कल्पना करना ही नहीं जानता था। जिस
कार्य को करने की वह ठानता था,उसे वह अवश्य ही पूरा
करता था। इसी कारण उसे एक व्यवहारिक व्यक्ति एवं
योग्य शासक माना गया है।

मोहम्मद गौरी की महमूद गजनवी से तुलना

महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी दोनों मुस्लिम
आक्रमणकारी थे। उन दोनों ने भारत पर अनेक हमले
किये। ग्यारहवीं शताब्दी में भारत 30 वर्ष तक यदि
मोहम्मद के आक्रमण से उत्पीड़ित रहा, तो 12 वीं
शताब्दी में मोहम्मद गोरी ने भारत को अपनी
साम्राज्यवादी सुधा को शांत करने के लिए परेशान
किया। परंतु उनके हमले विभिन्न दृष्टिकोण लिए हुए
थे और उनके प्रभाव भी विभिन्न रूप में ही दृष्टिगोचर
हुए। अतः स्पष्ट है कि उनके उद्देश्य तथा आचार
विचार में पर्याप्त अंतर होना चाहिए था।


सेनानायक के रूप

महमूद विश्व के महान विजेताओं में गिना जाता है। उस
ने भारत पर सत्रह आक्रमण किए और सबमें वह विजयी
हुआ। इसके विपरीत मोहम्मद गौरी ने भारत पर न तो
इतने आक्रमण ही किये और न वह उन सबमे विजयी
हुआ। इससे स्पस्ट है कि महमूद, मोहम्मद गोरी से
अधिक सफल सेना नायक था। महमूद की सेना से
राजपूतों की सेना भयभीत थी, जबकि मोहम्मद गोरी
की सेना को राजपूतों ने तराइन की पहली लड़ाई में
बुरी तरह परास्त किया था।इसलिए मजूमदार लिखते
हैं "सुल्तान महमूद निसंदेह संसार के सबसे महान
सैनिकों में था।" डॉक्टर ए.एल. श्रीवास्तव भी इसी का
समर्थन करते हैं। वे लिखते हैं -- "इसमें संदेह नहीं कि
सैनिक योग्यता में मोहम्मद गोरी, महमूद गजनवी की
समता नहीं कर सकता, क्योंकि उसे अनेक बार
भारतीय नरेशों द्वारा पराजित होना पड़ा, जबकि महमूद
को सर्वत्र विजय प्राप्त हुई।" परन्तु साथ में यह भी हमें
विदित होना चाहिए कि मोहम्मद गौरी को महमूद
गजनवी से युद्ध के कम साधन प्राप्त थे। मोहम्मद की
पराजय का यह भी कारण था कि वह एक विजेता के
रूप में आगे बढ़ता जाता था। उसने भारत पर कई
आक्रमण भारत भूमि से ही किये थे, जबकि महमूद
का प्रत्येक आक्रमण सीधा गजनी से होता था। इसका
फल यह होता था कि हिंदू नरेश महमूद की शक्ति की
जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते थे। जबकि वे मोहम्मद
की सेना की जानकारी कर लेते थे।

साम्राज्य संस्थापक के रूप में

इन दोनों मुस्लिम आक्रमणकारियों के भारत पर
आक्रमण करने के उद्देश्य से ही स्पष्ट है कि महमूद
भारत को केवल लूटना चाहता था। जबकि मुहम्मद
गौरी भारत को अपनी साम्राजयवाद सुधा का ग्रास
बनाना चाहता था। यही कारण है कि महमूद ने भारत
में अपने विजित प्रदेशों पर अपना शासन लागू नहीं
किया, जबकि मोहम्मद गोरी ने भारत में अपने प्रदेशों
को अपने सुशासन से लंबे समय के लिए मुस्लिम
शासकों के पराधीन बना दिया। महमूद कि विजय का
क्षेत्र अधिकतर पंजाब तक ही सीमित रहा, जबकि
मोहम्मद गौरी की विजय का क्षेत्र समस्त उतरी भारत
था। लेनपूल ने भी दोनों आक्रमणकारियों की परस्पर
तुलना करते हुए विजय में मोहम्मद गोरी को महमूद
गजनवी से उच्च बताया। प्रशासक के रूप में महमूद
गजनवी, मोहम्मद गौरी की समता में नहींआता। यहीं
कारण था कि मध्य एशिया में महमूद का राज्य गोरी
से अधिक विस्तृत था। उसका राज्य उसके मरते ही नष्ट
हो गया। इसके विपरीत मोहम्मद गोरी का राज्य भारत
तथा गजनी में उसकी मृत्यु पर्यंत भी उसके साथियों के
हाथ में रहा। इसी कारण उसे भारत में मुस्लिम साम्राज्य
का संस्थापक मन जाता है। इस तथ्य का समर्थन करते
हुए लेनपुल लिखते हैं कि "मोहम्मद गोरी के समय से
लेकर 1857 के विद्रोह तक दिल्ली पर कोई न कोई
मुसलमान राजा अवश्य राज्य करता रहा।"

राजनीतिज्ञ के रूप में

यह सत्य है कि महमूद गजनवी सुल्तान गोरी से अधिक
धैर्यवान साहसी तथा उच्च सेनानायक था। परंतु राजनीति
में मोहम्मद गोरी उससे अधिक पारंगत था। वह दूरदर्शी
एवं कूट राजनीतिज्ञ था। भारत की दयनीय अवस्था उसकी
तीक्ष्ण दृष्टि से ओझल ना हो सकी। अतः उसने तत्कालीन
राजपूत नरेशों की पारस्परिक फूट का पूरा फायदा उठाया
और भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना में सफलता
प्राप्त की। मोहम्मद गौरी की राजनीतिज्ञता पर डॉक्टर एल
श्रीवास्तव लिखते हैं "किंतु महमूद यहां के धन को लूट कर
ही संतुष्ट हो गया था। जबकि मोहम्मद ने इस देश के
विस्तृत भाग को जीतकर एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण
किया। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने मोहम्मद तथा महमूद की
तुलना करते हुए लिखा है कि "मोहम्मद उतना कट्टर न
था जितना महमूद परंतु मोहम्मद, महमूद से कहीं बड़ा
राजनीतिज्ञ था।"

धर्मांधता

धर्मांधता में दोनों ही सुल्तान बढ़े चढ़े थे। दोनों सुल्तानों
की इच्छा थी कि भारत में इस्लाम धर्म का प्रसार किया
जाए। परंतु इस दिशा में महमूद, मोहम्मद से अधिक
आगे था। यद्यपि हिंदुओं के देवालय दोनों ही मुस्लिम
आक्रमणकारियों द्वारा ध्वंस किए गए। परंतु जिस तरह
उनका विनाश महमूद ने किया ऐसा मोहम्मद ने नहीं
किया। इसके अलावा मोहम्मद गोरी ने मंदिरों का
विनाश केवल युद्ध के समय ही किया और शांति के
समय उन पर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखा। किंतु प्रो
श्री नेत्र पांडे इसके विपरीत मत व्यक्त करते हैं --
"धार्मिक कट्टरता दोनों शासकों में ही नहीं थी। महमूद
ने अपनी सेना में हिंदुओं को भी स्थान दिया बताया,
जबकि मोहम्मद ने हिंदू नरेशों से मित्रताके संबंध
स्थापित किए बताएं।"


साहित्य तथा कला

यद्यपि महमूद शिक्षित शासक नहीं था, तथापि वह
शिक्षा का महत्व समझता था। उसने अपने शासनकाल
में गजनी में बहुत से स्कूल, एक विश्वविद्यालय, एक
अजायबघर तथा एक पुस्तकालय आदि का निर्माण
करवाया था। इनके अतिरिक्त वह विद्वानों का आदर
करता था। उतबी, अंसारी, फारूकी तथा फिरदोषी
जैसे विद्वान उसके दरबार में विद्यमान थे। परंतु
मोहम्मद गोरी ने विद्वान होते हुए भी शिक्षा की उन्नति
के लिए कुछ भी नहीं किया। इसलिए इतिहासकार
लेनपुल लिखते हैं "महमूद के मुकाबले में मोहम्मद
गौरी का नाम लगभग अंधेरे में रहा है। वह साहित्य
का कोई संरक्षक ना था और न किसी कवि या
इतिहासकार ने उसकी महानता तथा शक्ति की प्रशंसा
करने के लिए होड़ ही लगाई।"

ठीक यही दशा कला के क्षेत्र में थी। महमूद गजनवी

नेपोलियन महान की भांति अपने विजित प्रदेशों से उच्च
कोटि के कलाकारों को गजनी ले गया। उनकी
कलाकृतियों से उसने गजनी को एक सुंदर नगरी के
रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया। परन्तु
मुहम्मद गोरी ने इस प्रकार का कोई कार्य अपने
शासनकाल में नहीं किया। इसलिए उसके शासन-
काल में गजनी में कोई कलाकृति न पनप सकी।

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