अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय । Historically famous Chittorgarh victory of Alauddin Khilji.

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अलाउद्दीन खिलजी की विजय (1297-1311 ईस्वीं) अलाउद्दीन खिलजी उत्तरी भारत की विजय (1297-1305 ईस्वीं)-- अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय व प्रारंभिक सैनिक सफलताओं से उसका दिमाग फिर गया था। महत्वाकांक्षी तो वह पहले ही था। इन विजयों के उपरांत वह अपने समय का सिकंदर महान बनने का प्रयास करने लगा। उसके मस्तिष्क में एक नवीन धर्म चलाने तक का विचार उत्पन्न हुआ था, परन्तु दिल्ली के कोतवाल काजी अल्ला उल मुल्क ने अपनी नेक सलाह से उसका यह विचार तो समाप्त कर दिया। उसने उसको एक महान विजेता होने की सलाह अवश्य दी। इसके अनंतर अलाउद्दीन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम उत्तरी भारत के स्वतंत्र प्रदेशों को विजित करने का प्रयास किया। 1299 ईस्वी में सुल्तान की आज्ञा से उलुगखां तथा वजीर नसरत खां ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहां का बघेल राजा कर्ण देव परास्त हुआ। वह देवगिरी की ओर भागा और उसकी रूपवती रानी कमला देवी सुल्तान के हाथ लगी। इस विजय के उपरांत मुसलमानों ने खंभात जैसे धनिक बंदरगाह को लूटा। इस लूट में प्राप्त धन में सबसे अमूल्य धन मलिक कापुर था, जो कि आगे चलकर सुल्तान का

अलबरी कबीले का सरदार गयासुद्दीन बलबन । Alabari clan chieftain Ghiyasuddin Balban. Part-1

बलबन

Ghiyas-ud-din Balban

इल्तुतमिश की मृत्यु के 30 वर्ष बाद तक दिल्ली के शासन में अराजकता का ही साम्राज्य रहा। यद्यपि इल्तुतमिश की सुयोग्य पुत्री सुल्ताना रजिया ने साम्राज्य में व्याप्त अराजकता को समाप्त कर सुव्यवस्थित राज्य स्थापित करने का प्रयास किया था, परंतु वह सुल्ताना होने के कारण सन 1240 ईस्वी में मौत के घाट उतार दी गई। सन 1240 ईस्वी से 1206 ईस्वी तक का काल अशांति का काल था। सुल्ताना रजिया के अयोग्य तथा विलासी भ्राताओं द्वारा शासन न संभाला जा सका। सन 1246 ईस्वी इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र नासीरुद्दीन गद्दी पर बैठा। जैसा कि हम पिछली पोस्ट में स्पष्ट कर चुके हैं कि नासीरुद्दीन एक दरवेश बादशाहा था। वह उदारता था,तथा दीनों का सहायक था। बलबन के शु- प्रशासन ने उसे राज्य कार्यों से और भी उदासीन बना दिया। इस कारण ही उसके शासन के 20 वर्ष ( 1246-66) शांति से व्यतीत हो गए। साम्राज्य की शासन सत्ता वास्तव में बलबन के ही हाथों में थी।  जैसा कि किसी इतिहासकार ने कहा है, “ नाम का शासक इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र नासीरुद्दीन था, लेकिन सत्ता की डोर बलबन के मजबूत हाथों में थी।

प्रारंभिक जीवन--

गयासुद्दीन बलबन का नाम बहाउद्दीन तथा उसका जन्म अलबरी कबीले में हुआ था। उसका पिता 10000 परिवारों का सरदार था, परंतु बाल्यावस्था में बलबन मंगोलों द्वारा बंदी बना लिया गया था। मंगोलो ने उसे ख्वाजा जमालुद्दीन को बेच दिया था। जमालुद्दीन उसे 1232 ईस्वी में दिल्ली लाया। दिल्ली में इल्तुतमिश ने उसे खरीद लिया और उसे अपना ‘खासा दरबार’ नियुक्त किया। रजिया सुल्तान ने अपने शासनकाल में ‘अमीरे शिकार’ बनाया। रजिया के विरुद्ध उसने बगावत में भाग लिया था। इस बात से प्रसन्न होकर बहराम शाह ने उसे रेवाड़ी और हांसी का सूबेदार बना दिया। ऐसा प्रतीत होता था कि उसकी प्रतिभा पर स्वयं परमात्मा मुग्ध था। कई इतिहासकारों ने तो यहां तक कहा है कि बलबन अल्लाह का पैगंबर था, जो यहां इस्लाम धर्म के प्रसार हेतु भेजा गया था। वह उसे उन्नति के निरंतर अवसर प्रदान कर रहा था।  सन 1245 ईस्वी में मंगोलों ने सिंध पर आक्रमण किया। बलबन ने वीरता से उनको वापस भगा दिया। इस पर मसूद शाह ने उसे हमीरे हाजिब बनाया। जब 1246 ईस्वी में नासीरुद्दीन सुल्तान बना तो बलबन को एक योग्य व्यक्ति समझकर उसे उसने अपने प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त कर दिया तथा उसे ‘उलुगखां’ की पदवी से विभूषित किया।

बलबन प्रधानमंत्री के रूप में (1246-66 ईस्वी)--

बलबन वास्तव में एक प्रतिभा संपन्न व्यक्ति था। वह एक निम्न पद से उच्च पद पर अपनी बुद्धिमता तथा चतुराई के बल पर ही पहुंचा था। नासिरुद्दीन का वह शीघ्र ही विश्वासपात्र बन गया। 1249 ईस्वी में बलबन ने अपनी पुत्री की शादी भी सुल्तान से कर दी। बदायूनीं का कहना है कि सुल्तान का उस पर पूरा विश्वास था। उसने उलुगखां का पद देते हुए कहा था--” मैंने शासन-यंत्र तुम्हारे हाथों में दिया है। ऐसा कार्य मत करना जिससे तुम्हें और मुझको परमात्मा के सम्मुख लज्जित होना पड़े। “ बलबन ने अपने को पूरी तरह इस पद के योग्य प्रमाणित किया।

बलबन का प्रभाव--

बलबन के शीघ्र उत्कर्ष से तुर्की अमीर उससे द्वेष करने लगे। इमामुद्दीन रायहन के नेतृत्व में विरोधी दरबारी बलबन को अपदस्थ करने का प्रयास करने लगे। बलबन की निरंकुशता से स्वयं सुल्तान भी अप्रसन्न था। अतः जब बलबन के विरोधी निरंतर उसके विरुद्ध सुल्तान के कान भरने लगे तो सुल्तान ने 1253 ईस्वी में अपदस्थ कर दिया। बलबन के विषय में डॉ ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं, “ अंततः उनके कुचक्र सफल हुए और यह महान सेनानायक एंव मंत्री, जिसने अनन्य भाव से सुल्तान की सेवा की थी, हिज़री सन 651 के मुहर्रम (मार्च 1253 ईस्वी) में राज्यसभा से बहिष्कृत कर दिया गया। ” 

बलबन की पुनः नियुक्ति--

बलबन के पदच्युत होते ही सुल्तान के दरबार में विभिन्न उच्च पदों पर नियुक्तियां हुई और बलबन के समय के अधिकारियों को पदों से हटा दिया गया। यहां तक कि मिनहाज सिराज को भी काजी के पद से च्युत कर दिया। यद्यपि निम्न वर्ग के लोग रायहन के शासन से संतुष्ट थे, तथापि देश का शासन सूत्र शीघ्रता से निर्बल होने लगा। डॉ. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं, “ शासन प्रबंध में शिथिलता आने लगी, सारे राज्य में अव्यवस्था फैल गई एवं अन्य षड्यंत्र रचे जाने लगे। “ यह देख सुल्तान ने पुनः बलबन को फरवरी, 1254 ईस्वी में अपना प्रधानमंत्री बना लिया।

बलबन के मंत्री काल की घटनाएं---

विद्रोही हिंदुओं का दमन--

गुलाम वंश के कमजोर शासक के समय में हिंदू नरेश पुनः अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। बलबन एक कट्टर मुसलमान था। वह हिंदू नरेशों को स्वतंत्र होते नहीं देख सकता था। अतः रणथंबोर, ग्वालियर और चंदेरी के राजाओं के विरुद्ध उसने सेनाएं भेजी और उन्हें दिल्ली के अधीन बनाया। उसने दोआब के विद्रोहियों का दमन किया। श्रीवास्तव लिखते हैं कि, “ अनेक पुरुषों का वध कर दिया गया और स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बना लिया गया। “

खोखर जाति का दमन--

नासिरुद्दीन के सुल्तान बनने से पूर्व राज्य में अराजकता व्याप्त थी। चारों और अशांति छाई हुई थी। उत्तर में खोखर जाति उत्पात मचा रही थी और वे लोग मंगोलो को सहायता देते रहते थे। राज्य में व्यवस्था स्थापित करने की दृष्टि से बलबन ने 1246 ईस्वी में खोखरों का भी दमन किया।

मेवातीयों का दमन--

मेवातीयों ने दिल्ली के चारों तरफ लूटमार मचा राखी थी। व्यापारियों का आना-जाना सुरक्षित नहीं था। बलबन ने उन मेवातियों को दबाने के लिए एक विशाल एंव संगठित सेना भेजी।

विद्रोही सूबेदारों का दमन--

सूबेदार सुल्तान के अधीन तब तक ही रहते थे, जब तक सुल्तान शक्तिशाली होता था। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी रजिया की मृत्यु के उपरांत राजनितिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालता हुवा लिखता है--” सरकार का भय जो सुशासन का आधार तथा राज्य के वैभव और समृद्धि का स्रोत है, लोगों के हृदय से जाता रहा था। “ सूबेदार लोग पुनः स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहे थे। 1255 ईस्वी में अवध के सूबेदार कुतुबखान और सिंध के सूबेदार किसलूखां ने विद्रोह किया। दिल्ली के बहुत से अमीरों ने भी उसका साथ दिया। परंतु बलबन ने अपने अदम्य साहस से उनको भी निर्दयता से दबा दिया। इन सूबेदारों के आलावा बलबन ने शम्शी सरदारों का भी दमन किया। उसने कई सरदारों की जागीरी छीन ली। परंतु कोतवाल फकरुद्दीन के कहने पर उसने पुनः उनके साथ उदारता का व्यवहार किया।

बंगाल के विद्रोह को शांत करना--

कुछ समय से बंगाल की व्यवस्था पुनः अव्यवस्थित हो गई थी। वहां के सूबेदार तुगरिल खां ने दिल्ली से संबंध विच्छेद कर अवध पर आक्रमण कर दिया था। पर जाजनगर के राजा द्वारा तुगरिल को परास्त कर दिया गया उसने सुल्तान से सहायता मांगी। इससे बलबन को वहां की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल। तुगरिल खां परास्त हुआ। उसने अवध की जागीर युद्ध के हर्जाने के रूप में सुल्तान को दे दी और स्वयं दिल्ली के अधीन हो गया। इस प्रकार बंगाल के विद्रोह को शांत कर बलबन ने वहां शांति स्थापित की।

मंगोलो से राज्य की सुरक्षा--

आंतरिक शांति स्थापित करने के बाद बलबन  बाह्य सुरक्षा की ओर ध्यान दिया। इस समय तक मंगोल पुनः बहुत शक्तिशाली हो गए थे। उन्होंने गजनी तथा ट्रांस-ऑक्सियाना पर अधिकार कर लिया था तथा बगदाद के खलीफा को मौत के घाट उतार दिया। सिंध और पंजाब पर उनके निरंतर आक्रमण होने लग गए। उनके आक्रमणों को रोकने के लिए बलबन ने एक शक्तिशाली सेना को सीमा पर तैनात किया और सीमा पर दृढ़ दुर्गों का निर्माण करवाया। इस प्रकार से बलबन ने नासिरूद्दीन के साम्राज्य को बाह्य संकट से बचाए रखा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बलबन ने अपने प्रधानमंत्री के 20 वर्ष के काल में कई महान कार्य किये। नासिरुद्दीन के शासनकाल में अराजकता को नष्ट कर शांति स्थापित करने का श्रेय बलबन को ही जाता है। उसने हिंदू विद्रोहियों को दबाया तथा असंतुष्ट मुसलमान अमीरों को सुल्तान का स्वामी भक्त बनाया। भयंकर लड़ाकू व मंगोलों के आक्रमण से साम्राज्य को सुरक्षित रखने की शक्ति बलबन में ही थी। ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं--” यदि बलबन की शक्ति न होती तो संभवत दिल्ली का साम्राज्य आंतरिक एवं बाह्य आक्रमण को बर्दाश्त न कर पाता। “

बलबन शासक के रूप में (1266-86 ईस्वी)

बलबन का राज्यारोहण तथा उसकी प्रारंभिक कठिनाइयां--

नासिरुद्दीन 18 फरवरी 1266 ईस्वी को इस लोक से चल बसा। उसके कोई पुत्र न था। उसका दामाद जो अपने प्रधानमंत्री काल में अपने कार्यों से जनता का अति प्रिय तथा विश्वसनीय बन गया था, उसके स्थान पर 1266 ईस्वी में दिल्ली के तख्त पर बैठा। इब्नबतूता, इसामी आदि प्रवर्ती लेखकों की धारणा है कि बलबन राज्य हड़पने वाला था। आधुनिक इतिहासकारों ने इस किंवदंती को निराधार सिद्ध कर दिया है। यह सत्य है कि उसने अपने प्रधानमंत्री काल में राज्य की कई कठिनाइयों को दूर कर दिया था-- परंतु अब भी दिल्ली का तख्त कोमल कुसुमो का तख्त न था। उसके सामने तीन कठिनाइयां प्रमुख रूप से प्रस्तुत थी--(1) मुस्लिम सरदारों का विरोधी रुख। (2) मंगोलों के निरंतर आक्रमण और (3) राज्य में व्याप्त अराजकता। यद्यपि यह समस्याएं लगभग सभी गुलाम वंश के सुल्तानों के सामने विद्यमान रही थी परंतु उनके निवारण में बलबन सर्वाधिक सफल रहा। उनका समाधान उसने इस प्रकार किया:--

मुस्लिम सरदारों पर नियंत्रण करना--

बलबन के समय तक मुसलमान अमीरों का एक गुट बन गया था। यह गुट शनै शनै शक्तिशाली बन कर शासन में भयंकर समस्या उत्पन्न करने लगा था। यद्यपि बलबन नासिरुद्दीन के द्वारा ही राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया गया था। परंतु फिर भी अमीरों ने बलबन का विरोध किया। बलबन उन मुस्लिम सरदारों के लिए इंग्लैंड का बादशाह हेनरी सप्तम सिद्ध हुआ। उसने कई कानून बनाकर उन मुस्लिम सरदारों को शक्तिहीन बना दिया। बलबन ने मुस्लिम सरदारों का परस्पर मिलना उनका जुआ खेलना बंद करा दिया। सरदारों को परस्पर वैवाहिक संबंध स्थापित करने में भी सुल्तान की अनुमति लेना आवश्यक हो गया। दरबार में सरदार न हंस सकते थे और न आपस में मजाक ही कर सकते थे। तुर्की सरदारों के कार्यों पर कड़ी निगाह रखने के लिए उसने एक गुप्तचर विभाग स्थापित किया। दूसरों की सहायता से सुल्तान को साम्राज्य के सब समाचार मिलते रहते थे।

1. बंगाल की पुनर्विजय --

बंगाल का सूबेदार तुगरिल बैग सुल्तान की वृद्ध अवस्था तथा राजधानी से दूर होने का फायदा उठाना चाहता था। तुगरिल बैग बंगाल का सूबेदार तथा बलबन का खरीदा हुआ दास था। परंतु वह एक योग्य तथा अनुभवी प्रशासक भी था। सन 1279 ईस्वी में उसने सुल्तान की उपाधि धारण कर अपने को दिल्ली से स्वतंत्र घोषित कर दिया। यह सुनकर बलबन बड़ा क्रुद्ध हुआ।  उसने अमीन खां के नेतृत्व में सेना भेजी। परंतु अमीन खां परास्त हुआ और उसके परिणामस्वरुप उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। उसका सिर कटवा कर दिल्ली दरवाजे पर लटकवा दिया। दूसरी सेना मलिक तिर्मिर्ति के नेतृत्व में भेजी गई। परंतु वह भी तुगरिल से परास्त हुआ। इस पर बलबन आग बबूला हो गया और दिल्ली का शासन कोतवाल फखरुद्दीन को सौंपकर अपने पुत्र बुगरा खां के साथ वह स्वयं बंगाल की ओर रवाना हुआ। बलवान के आने की खबर सुनकर तुगरिल बैग राजधानी छोड़कर पूर्वी बंगाल की ओर भाग गया। परंतु उसका पीछा किया गया और हाजी नगर में उसका वध कर दिया गया। विद्रोहियों का क्रूरता से दमन किया गया। तुगरिल के सहायकों को लखनौती के बाजार में फांसी पर लटकाया गया। इतिहासकार बरनी लिखता है., “ मुख्य बाजार में दोनों और 1-2 मील लंबी सड़क पर एक खूंटों की पांति गाड़ी गई और उनपर तुगरिल के साथियों के शरीर को ठोका गया। “ बलबन ने अपने द्वितीय पुत्र बुगरा खां को बंगाल का सूबेदार बनाया और कहा, “ मैं जो कहता हूं उसे समझो और इस बात को मत भूलो कि यदि हिंद, सिंध, मालवा, गुजरात, लखनौती अथवा सुनारगांव के सूबेदार विद्रोही होकर तलवार उठाएंगे उन्हें, उनकी स्त्रियों, पुत्रों और अनुयायियों को भी वही दंड मिलेगा, जो तुगरिल तथा उसके साथियों को मिला है। “ अंत में जब उसे विश्वास हो गया कि बंगाल में विद्रोह नहीं होगा तो वह राजधानी लौट आया। इसके उपरांत भी जिन लोगों ने तुगरिल बैग का साथ दिया था और जो बंदी बना लिए गए थे, उन को दंड दिया गया। बलबन की इस कठोर नीति से बंगाल का विद्रोह शांत हुआ और वह दिल्ली राज्य का अंग बना रहा।

2. मंगोलों के आक्रमण से राज्य को सुरक्षित करना--

मंगोलो का भय भारत को इल्तुतमिश के समय से ही हो गया था। यह भय नासीरुद्दीन के समय भी रहा और बलबन ने प्रधानमंत्री की हैसियत से उसका समुचित प्रबंध भी किया। परंतु सुल्तान बनते ही उधर उसने इस और पुनः ध्यान दिया। उत्तर पश्चिमी सीमा को मंगोलों से सुरक्षित रखने के लिए उसने सीमा पर सुदृढ़ दुर्ग बनवाएं और उन किलों को बहादुर सैनिकों से भर दिया। पुराने किलों की मरम्मत करवा दी। इनके अलावा उसने अपने चचेरे भाई शेर खान को इस सीमा का सुरक्षा अधिकारी नियुक्त किया। शेर खान ने मंगोलों के दिलों में आतंक उत्पन्न कर दिया। परंतु 1270 ईस्वी में वह वीर इस दुनिया से चल बसा। इस सीमा रक्षक के उठ जाने पर बलबन ने संपूर्ण सीमा को दो भागों में विभक्त कर दिया। सुनम तथा समाना के प्रांत उसने अपने छोटे पुत्र बुगरा खां तथा मुल्तान, सिंध और लाहौर के प्रांत उसने अपने जेष्ठ पुत्र मोहम्मद खान को सौंप दिए। मंगोलों को भी वह भारत आने से रोकता रहा। परंतु 1286 ईस्वी में मंगोल भारत में बड़े वेग से आए इस वेग को रोकने में शहजादा मोहम्मद स्वयं मारा गया। पुत्र शौक ने बलबन के दिल को हिला दिया; पर अपने शेष जीवन काल में भी वह सीमा सुरक्षा के प्रति उदासीन नहीं रहा और मंगोलों के आक्रमण भारत पर भविष्य में नहीं होने दिए।

3. राज्य को संगठित करना--

बलबन के सामने तीसरी समस्या राज्य को संगठित करने की थी। बलबन जानता था कि जब तक राज्य का गठन शुद्र तथा स्थाई आधार पर नहीं होगा तब तक उसका राज्य उसके लिए तथा उसके उत्तराधिकारियों के लिए सुरक्षित नहीं रह सकता। राज्य के संगठन में उस समय प्रभावशाली तुर्की सरदार व गुलामों का उत्कर्ष बाधास्वरूप बना हुआ था। इनके अलावा राजपूत राजा भी तुर्की के शासकों को शांतिमय नहीं रहने देते थे। अतः बलबन ने अपने राज्य का गठन इन बाधाओं का निवारण करते हुए तथा शासन प्रणाली के माध्यम से किया। प्रथम हम यह बताएंगे कि उसने विद्रोहियों को शांत किस प्रकार किया। तदुपरांत उसकी शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालेंगे।

विद्रोहियों का दमन--

विद्रोहियों का दमन करने का काम यद्यपि अत्यंत कठिन था, तथापि बलबन उनके दमन के लिए कटिबद्ध रहा। सर्वप्रथम उसने राजधानी दिल्ली के आसपास के विद्रोहियों और डाकुओं का दमन किया। डाकू बंदी बनाए गए तथा उन्हें कठोर दंड दिया गया। भविष्य में उनका भय न हो, इसलिए दिल्ली के समीप के जंगल भी साफ करवा दिए। इसके उपरांत उसने अवध व दोआब के शासकों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही की। भोजपुर, पटियाली, कंपिल तथा जलाली में उसने सैनिक चौकियां स्थापित की। इसके पश्चात उत्तर की ओर कूच किया। वहां उसने बड़ी निर्दयता की नीति अपनाई। यहां के मकानों को उसने अग्निदेव के भेंट चढ़ा दिया तथा वहां की संपूर्ण जनता को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। इन बर्बर तरीकों से सुल्तान ने लोगों के ह्रदयों को आतंकित किया। निर्दोष बच्चों व स्त्रियों को जबरदस्ती तुर्की सैनिक दास बना कर ले गए। अत्याचार के विषय में डॉक्टर श्रीवास्तव लिखते हैं --”प्रत्येक जंगल तथा गांव को मनुष्य की लाशों से सड़ता हुआ छोड़ दिया गया। थोड़े बहुत लोग जो यत्र तत्र छिपे रहे वे भी भय के कारण पूर्णतयः दब गए। इस कठोर नीति का परिणाम यह हुआ कि कतेहर (रुहेलखंड) के लोग बलबन से भयभीत हो गए और उन्होंने उत्पात मचाना छोड़ दिया। इसी प्रकार की आतंक पूर्ण नीति से उसने राजपूताने के राजपूत राजाओं को दबाया तथा वहां शांति स्थापित की। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि बलबन ने प्रारंभ से ही जर्मनी के निर्माता बिस्मार्क की खून और तलवार (ब्लड एंड आयरन) की नीति अपनाई और उसमें सफलता प्राप्त की।

40 गुलामों का दमन--

दिल्ली के गुलाम सुल्तानों को भी गुलाम रखने का शोक था। उन गुलामों का प्रशासन में बड़ा प्रभाव रहता था। अवसर पाकर वे सुल्तान से भी स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहते थे। इल्तुतमिश तो उन्हें अपनी योग्यता से नियंत्रित करता रहा। परंतु उसकी मृत्यु पर यह गुलाम सबल हो गए और रजिया सुल्तान के उपरांत जितने भी सुल्तान बने, उनके बनने में इन तुर्की गुलामों का बड़ा योगदान रहा। इनके पारस्परिक झगड़ों का भी प्रशासन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे सुल्तान के मार्ग में कांटे बने हुए थे। बलबन ने अपने राज्य तथा अपने वंश को गुलाम के भय से मुक्त करने का प्रयास किया। उसने सुल्तान बनते ही उनको निर्बल बनाने के लिए बडे साहसिक कदम उठाए। धनी गुलामों की संपत्ति की जांच कराई गई। अनुचित रूप से संचित पूंजी पर सुल्तान ने अधिकार कर लिया। इसके अलावा वे भी कर से मुक्त नहीं रखे गए। उनके कार्यों पर भी बड़ी निगरानी रखी जाने लगी। इन सब प्रयत्नों का फल यह हुआ कि बलबन को अब उन गुलामों का भय नहीं रहा और वे अब बलबन के शासन में बाधास्वरूप नहीं रहे।

बलबन का राजत्व का सिद्धांत--

उसके शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालने से पूर्व उस के राजत्व सिद्धांत को जान लेना आवश्यक है क्योंकि उसकी सारी शासन व्यवस्था उसी पर आधारित थी। 20 वर्ष तक प्रधानमंत्री पद पर कार्य करने से बलबन को प्रशासन का अच्छा अनुभव हो गया था। इसके अलावा वह ताज की प्रतिष्ठा के महत्व को भी भलीभांति जानता था। उसके दीर्घ अनुभव ने उसे सिखा दिया था कि तुर्की अमीरों की शक्ति को बिना समाप्त किए हुए एक सफल शासक नहीं बन सकता है। वह तत्कालीन शासकों की भांति देवी सिद्धांत में विश्वास करता था। एक स्थल पर उसने यह कहा था--’ राज-हृदय ईश्वरीय कृपा का विशेष भंडार है और इस दृष्टि से कोई भी राजा की सहायता का अधिकारी नहीं है। “ अतः वह निरंकुशता में विश्वास करता था वह परमात्मा के आदेश को ही अंतिम मानता था। निसंदेह बलबन एक कट्टर धार्मिक शासक था। उसने अपने प्रशासन को इस्लाम धर्म का बाना पहनाने का प्रयास किया था। परंतु यह होते हुए भी उलेमाओं का प्रशासन में हस्तक्षेप सहन नहीं करता था। उस पर नियंत्रण था तो केवल कुरान की आयतों का या उसके धार्मिक जीवन का। श्रीवास्तव लिखते हैं, “ उसका विश्वास था कि राज-शक्ति स्वभाव से ही निरंकुश है। उसका यह भी विश्वास था कि प्रजा से आज्ञा पालन करवाने तथा राज्य को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि सुल्तान पूर्ण रूपेण निरंकुश हो।” परंतु इस निरंकुशता से उसका तात्पर्य यह कदापि नहीं था कि वह अल्लाह से ना डरे। वह निर्णायक दिवस (डे ऑफ़ जजमेंट) में पूर्ण विश्वास रखता था। अतः वह कभी कोई ऐसा काम करना नहीं चाहता था, जिसके फलस्वरूप उसे निर्णायक दिवस पर अल्लाह की नजरों में गिरना पड़े। इसी कारण बलबन निरंकुश होते हुए भी पूर्ण निरंकुश नहीं हो पाया था।
दूसरे बलबन भय को सुशासन का आधार मानता था। बरनी लिखता है कि नासीरुद्दीन के अंतिम दिनों में सुल्तान की प्रतिष्ठा बिल्कुल नष्ट हो चुकी थी। सामंतों व सूबेदारों ने कर देने से इनकार कर दिया था। राज्य में अराजकता बढ़ने लगी थी। इस कारण बलबन इस प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित करना चाहता था, जिससे जनता के हृदय में ताज का भय हो। बंगाल के विद्रोह को दबाने तथा कतेहर के विद्रोहियों को दबाने में बलबन ने जो निर्दयता का परिचय दिया वह उसकी इस नीति का ही परिचायक है।
शासन को सुव्यवस्थित रखने व ताज की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए वह दरबार का भी गौरव रखना चाहता था। वह यह भली-भांति जानता था कि यदि दरबार में पूर्ण अनुशासन रखा जाएगा, तो सामंत उसका आदर करेंगे तथा जनता भय से स्वामी भक्त रहेगी। वह यह भी जानता था कि दरबार में किसी से मजाक करना तथा अधिक बातचीत करना ताज की प्रतिष्ठा को कम करता है। इन्हीं कारणों से बलबन दरबार में कठोर रहता था। उस के दरबार में पूर्ण शांति व अनुशासन रहता था। कोई किसी से मजाक नहीं कर सकता था। उसके दरबार के कठोर अनुशासन के विषय में बरनी ने अपनी पुस्तक ’तारीख ए फिरोजशाही’ में अच्छा प्रकाश डाला है।
बलबन की यह भी मान्यता थी कि राज्य पद अत्यंत गौरवशाली है। उसका कहना था कि राज्य पद को गौरवशाली बनाए रखना राजा का परम धर्म होना चाहिए। वह राज्य शक्ति को परमात्मा की देन समझता था। अतः इस शक्ति के सहारे बलबन अपने को आम जनता से ऊँचा मानता था तथा राजा के कर्तव्य निष्पक्षता से संपन्न करना अपना परम धर्म समझता था। इसीलिए वह सुल्तान का परम कर्तव्य यही समझता था कि वह इस पद के गौरव को बनाए रखें। वह कभी कोई ऐसा कार्य न करें, जिससे की उसका मान घटे। इस गौरव को बनाए रखने के लिए वह कठोर नीति को अपनाने में भी नहीं सकुचाता था।
बलबन के राजत्व के सिद्धांत आज भी महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। पर वे एक आधार पर आधारित न होकर विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित थे। धार्मिक होने के कारण व कुरान की आयतों पर अधिक निर्भर रहता था। राजनीतिज्ञ होने के कारण तत्कालीन राजनीति से भी वह प्रभावित था। वास्तव में देखा जाए तो बलबन का राजत्व को एक उत्तर-दान समझता था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बलबन के राजत्व सिद्धांत में आदर्शवाद तथा यथार्थवाद का सुंदर समन्वय था। प्रारम्भ में वह आदर्शवादी अधिक था। वह अपने प्रशासन के समस्त कार्य कुरान की आयतों के अनुसार ही संपन्न करता था। उसकी मान्यता थी कि शासक को यह मानकर चलना चाहिए कि वह इस्लाम धर्म का संरक्षक है। अतः उसे अपने शासनकाल में वही कार्य करने चाहिए, जिनसे इस्लाम गौरवान्वित हो। सरकार ऐसे ही कानून बनाए जिनसे विधर्मी भी इस्लाम के अनुयाई बन जाए।
परंतु बलबन ने शीघ्र ही महसूस कर लिया कि भारत में अभी इस प्रकार का प्रशासन संभव नहीं, क्योंकि यहां मुसलमान संख्या में अभी बहुत कम है। समस्त हिंदू जनता को मुसलमान बनाना असंभव है। उसने शीघ्र ही यह धारणा बना ली की हिंदू धर्म को एकदम समाप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने अपने प्रशासन को इस प्रकार का बनाना चाहा, जिससे हिंदू शनै शनै इस्लाम को अंगीकार करने को बाध्य हो जाए। इसी कारण उसने हिंदुओं पर न तो विश्वास किया और न उनको उच्च पद ही दिए। अपने प्रशासन से उसने उनका जीवन दुर्लभ बना दिया। उसकी यह धारणा उसके यथार्थवाद की घोतक थी।

To be continued............

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