अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय । Historically famous Chittorgarh victory of Alauddin Khilji.

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अलाउद्दीन खिलजी की विजय (1297-1311 ईस्वीं) अलाउद्दीन खिलजी उत्तरी भारत की विजय (1297-1305 ईस्वीं)-- अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय व प्रारंभिक सैनिक सफलताओं से उसका दिमाग फिर गया था। महत्वाकांक्षी तो वह पहले ही था। इन विजयों के उपरांत वह अपने समय का सिकंदर महान बनने का प्रयास करने लगा। उसके मस्तिष्क में एक नवीन धर्म चलाने तक का विचार उत्पन्न हुआ था, परन्तु दिल्ली के कोतवाल काजी अल्ला उल मुल्क ने अपनी नेक सलाह से उसका यह विचार तो समाप्त कर दिया। उसने उसको एक महान विजेता होने की सलाह अवश्य दी। इसके अनंतर अलाउद्दीन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम उत्तरी भारत के स्वतंत्र प्रदेशों को विजित करने का प्रयास किया। 1299 ईस्वी में सुल्तान की आज्ञा से उलुगखां तथा वजीर नसरत खां ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहां का बघेल राजा कर्ण देव परास्त हुआ। वह देवगिरी की ओर भागा और उसकी रूपवती रानी कमला देवी सुल्तान के हाथ लगी। इस विजय के उपरांत मुसलमानों ने खंभात जैसे धनिक बंदरगाह को लूटा। इस लूट में प्राप्त धन में सबसे अमूल्य धन मलिक कापुर था, जो कि आगे चलकर सुल्तान का

अलबरी कबीले का सरदार गयासुद्दीन बलबन । Alabari clan chieftain Ghiyasuddin Balban. Part-2


बलबन की शासन व्यवस्था

Ghiyasuddin Balban

राज्य का संगठन( शासन प्रबंध)--

जब बलबन गद्दी पर बैठा था, उस समय राज्य का संगठन बड़ा ही अव्यवस्थित था। उसके पूर्वजों के शासन में राज्य भय जनता में नहीं था। अतः बलबन ने व्यवस्थित शासन व्यवस्था स्थापित कर राज्य को संगठित करने का प्रयास किया। यह सत्य है कि बलबन ने अपने शासनकाल में कोई नया प्रदेश नहीं जीता। परंतु उसने अपने पूर्वजों से प्राप्त राज्य को शुद्ध बनाए। बलबन का शासन एकतांत्रिक था। शासन की समस्त सत्ता उसके हाथों में केंद्रित थी। वह राजा के पद को अति महत्वपूर्ण समझता था, तथा उसके कार्यों को पवित्र कार्य समझता था। इसीलिए वह प्रशासन के समस्त कार्यों में भाग लेता था। उसके सुल्तान बनने के समय देश की अवस्था विषम थी। परंतु उसकी यह सुदृढ़ शासन व्यवस्था ही थी, जिसके सहारे कि वह भारत में गुलाम राज्य को बनाए रखा। डॉक्टर हबीबुल्लाह लिखता है कि “ बलबन का सबसे महान कार्य ही यह था कि उसने राज्य में सुव्यवस्था कायम की, चाहे प्रशासन में अधिक सुधार न हुआ हो। इस प्रकार से अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासन की उसने भूमिका तैयार कर दी थी।“

सेना का संगठन--

निरंकुश शासक की शक्ति उसकी सेना में रहती है। उसने अपनी सेना के संगठन की ओर ध्यान दिया। उसने अपनी सेना को अनुभवी स्वामी भक्त सेना नायकों के अधीन किया। सैनिक कर्मचारी युद्ध विद्या का ज्ञान रखते थे। कुतुबुद्दीन ऐबक ने सैनिकों को सैनिक सेवा के बदले भूमि दी थी और उसने भी यही प्रथा चालू रखी थी। इसके विपरीत सैनिकों को वेतन देने की प्रथा प्रचलित की। यह सत्य है कि वह सरदारों के विरोध के कारण इस कार्य में पूर्ण सफलता नहीं प्राप्त कर सका। इसके अलावा उसने अपनी सेना में हाथी और घुड़सवारों की संख्या बढ़ा दी थी। सेना की व्यवस्था व्यवस्थित ढंग से रखने की दृष्टि से उसने सेना का नियंत्रण इमाद उल मुल्क को दे दिया। इमाद उल मुल्क एक अनुभवी एवं उच्च कोटि का सेनानायक था। इसके नेतृत्व में सेना ने अनुशासन में रहना सीखा। बरनी का कहना है कि सेना को तत्पर बनाए रखने की दृष्टि से वह अपने अश्वारोहियों को यदा-कदा शिकार पर भी ले जाता रहता था। यह उसकी शक्तिशाली सेना ही थी, जिसकी सहायता से वह डाकुओं का सफाया कर सका और मंगोलों से टक्कर ले सका। सैनिक कार्यों को स्वतंत्रता पूर्वक संपन्न करने हेतु वित्त मंत्री के प्रभाव से भी उसने सेना को मुक्त कर दिया। इमाद उल मुल्क ने सैनिकों को भर्ती, वेतन तथा साज-सज्जा के संबंधों में विशेष रुचि दिखाई। डॉक्टर श्रीवास्तव की मान्यता है कि यद्यपि बलबन ने सेना में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किए, तथापि उसकी जागरूकता तथा कठोरता और सेना मंत्री के ब्योरे के चीजों के प्रति अत्यधिक ध्यान के कारण सेना की योग्यता तथा मनोबल में बहुत उन्नति हुई। इसके अलावा बलबन ने उन पुराने अश्वारोही सैनिकों की पदोन्नति की, जो पहले युद्ध में वीरता तथा स्वामी भक्ति का परिचय दे चुके थे। इसका परिणाम यह हुआ कि बलबन की सेना में स्वामी भक्त योद्धा तथा अनुशासन प्रिय सैनिक पर्याप्त मात्रा में रहे।

गुप्तचर विभाग की व्यवस्था--

गुप्तचर शासक के कानों के समान होते हैं। वे राज्य में घटने वाली घटनाओं से शासक को अवगत कराते रहते हैं। एक इतिहासकार का मत है कि सुव्यवस्थित गुप्तचर विभाग किसी भी निरंकुश राज्य का आवश्यक प्रतिरूप है। अतः बलबन जैसा दूरदर्शी एवं सफल राजनीतिज्ञ इस विभाग के महत्व से किस प्रकार अनभिज्ञ रह सकता था? उसने भी अपने राज्य में एक गुप्तचर विभाग स्थापित किया। समस्त राज्य में जासूसों का जाल बिछा दिया गया। यह जासूस बलबन के पास प्रत्येक अमीर व सूबेदार के कार्यकलापों की खबर भेजा करते थे। यहां तक कि बलबन ने अपने पुत्र बुगराखां के पीछे भी अपने गुप्तचर छोड़ रखे थे। गुप्तचर विभाग में बलबन कठोरता की नीति अपनाता था। यदि कोई गुप्तचर समय पर कोई महत्वपूर्ण खबर उसके पास नहीं भेजता था तो वह उसे कठोर दंड देता था। बदायूं के गुप्तचर ने मलिक बलबन के संबंध में समाचार समय पर सुल्तान के पास नहीं भेजें। इस पर सुल्तान ने उसका सिर कटवा कर के द्वार पर लटकवा दिया था।

न्याय व्यवस्था--

बलबन 'देवी-सिद्धांत' में विश्वास रखता था। वह शासन करने में बड़ा कठोर तथा न्याय करने में निष्पक्ष रहता था। शासन में उसकी न्याय प्रियता इतनी थी कि अपराध करने पर अपने संबंधियों को भी कड़ा दंड देने में नहीं हिचकता था। बदायूं का जागीरदार मलिक बकबक को अपने एक नौकर के प्राण लेने के अपराध में उसके द्वारा उचित दंड दिया गया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि अमीर गरीब न्याय की तराजू पर बलबन के लिए समान थे। इतिहासकार बरनी लिखता है--” न्याय में वह सख्त था। वह अपने संबंधियों, सहयोगीयों और नौकरों के साथ भी पक्षपात नहीं करता था।“ बलबन की न्याय व्यवस्था के विषय में डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद लिखता है, “ न्याय करने में सुल्तान पूरी निष्पक्षता से काम लेता था और अपने सगे संबंधियों और मित्रों तक का भी पक्षपात नहीं करता था।“ इससे सबके साथ समान व्यवहार होता था तथा कोई किसी को परेशान नहीं कर सकता था।

बलबन का गौरवपूर्ण दरबार--

बलबन इस तथ्य से भली भांति परिचित था कि विदेशों में अपनी सत्ता की धाक जमाने के लिए एक शानदार दरबार की अत्यंत आवश्यकता है। अतः बलबन ने इराक के सम्राटों की भांति अपने यहां एक शानदार दरबार की व्यवस्था की। दरबार के संचालन में भी इराक के नियम अपनाए गए। वह दरबार में अच्छे वस्त्र पहनकर आता था और इसी प्रकार उसके दरबारियों को भी अच्छे वस्त्र पहनकर दरबार में आना पड़ता था। जियाउद्दीन बरनी लिखता है कि सुल्तान अपने सूर्य के समान मुख तथा कपूर की भांति श्वेत दाढ़ी के साथ राज्य सिंहासन पर इस वैभव के साथ विराजमान होता था कि उसके वैभव से लोगों के हृदय कांप उठते थे। दरबार उच्च कोटि का था। सुल्तान न स्वयं हँसता था और न दरबारियों को हंसने देता था। दरबार में हंसी मजाक करना सर्वथा वर्जित था। संगीत दरबार की चारदीवारी में नहीं फटक पाता था। दरबार में सुल्तान द्वारा इतिहासकार, विद्वान् तथा कवि आदर पाते थे। प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो बलबन के दरबार का प्रमुख कवि था। दरबार के अवसर पर यदि दूसरे देशों के राजदूत या अन्य स्थानों के राय व रायजादा एवं मुकद्दम जाते तो उन्हें दरबार में जमीन बोस करना पड़ता था। अधिकांश आगंतुक चकित होकर मूर्छित हो जाते थे। इतिहासकार लेनपूल उसके दरबार के विषय में लिखता है कि वह अपने दरबार का गौरव शानदार उत्सव व सुंदर वेशभूषा से रखता था। वह स्वयं निम्न श्रेणी के व्यक्तियों से बात नहीं करता था और न उनको उच्च पदों पर नियुक्ति करता था।

बलबन एक राज्य हड़पने वाला था--

यद्यपि यह व्यक्त किया जा चुका है कि आधुनिक इतिहासकार यह मानते हैं कि बलबन राज्य हड़पने वाला नहीं था, तथापि आज भी तत्कालीन इतिहासकारों के कथनों के आधार पर यह कह दिया जाता है कि बलबन एक राज्य हड़पने वाला था। अतः हम उस समय के प्राप्त वर्णन के आधार पर इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं।--
नासिरुद्दीन के अंतिम समय का इतिहासकार इसामी था। उसने 'Futab-us-Salatin' नामक पुस्तक लिखी है। यद्यपि मिनहाज सिराज भी नसीरुद्दीन बलबन का समकालीन इतिहासकार था, पर उसकी मृत्यु 1260 ईस्वीं में हो गई थी। अतः मिनहाज सिराज तो अपनी पुस्तक में इस पर भी प्रकाश नहीं डाल सका कि बलबन ने नसीरुद्दीन से गद्दी किस प्रकार प्राप्त की ? परंतु रेबर्टी का कहना है कि मिनहाज सिराज बलबन के शासक बन जाने पर भी कुछ समय तक जीवित रहा था। अगर उसने बलबन के सुल्तान बन जाने की घटना का अपनी पुस्तक 'तबकाते-नासिरी' में उल्लेख नहीं किया है तो उसकी चुप्पी का दूसरा कारण हो सकता है। मिनहाज सिराज के उपरांत बरनी बलबन के काल की घटनाएं लिखता है। परंतु अहमद निजामी की मान्यता है कि मिनहाज सिराज व बरनी के वर्णन में 6 वर्ष का अंतर हो जाता है। अतः इसामी ही विश्वसनीय इतिहासकार हो सकता है, जो बलबन के राज्यारोहण की घटनाओं का उल्लेख कर सकता है। इसामी स्वयं इलबरी तुर्क था और उसके इलबरी तुर्कों से संबंध भी अच्छे थे। अतः जो उसने बलबन के राज्यारोहण के विषय में लिखा है वह विश्वसनीय माना जाना चाहिए। इसामी ने लिखा है कि बलबन नसीरुद्दीन को जहर दिलाने का पूर्ण उत्तरदाई था। इब्नबतूता ने अपनी पुस्तक 'Rehla' में इसामी के कथन की पुष्टि की है .वह लिखता है--” तदनंतर (नसीरुद्दीन) अपने सेनाध्यक्ष गयासुदीन बलबन द्वारा मार दिया गया जो सुलतान बन गया।“ अहमद निजामी का कहना है कि आधुनिक इतिहासकारों को इसामी व इब्नबतूता के उपरोक्त दोनों ग्रंथ उपलब्ध नहीं हुए। अतः वे नासिरुद्दीन की मृत्यु के विषय में अनभिज्ञ रहे।“ इस अनभिज्ञता के कारण ही उन्होंने यह लिख दिया कि सुल्तान अपनी स्वाभाविक मृत्यु से मर गया।
आधुनिक मुस्लिम इतिहासकारों में हम सर्वप्रथम याहया सर हिंदी (Yahya Sirhindi) को लेते हैं। वह नसीरुद्दीन की मृत्यु के विषय में लिखता है, “जब सुल्तान बीमार पड़ा तो अल्लाह के हुक्म से उसने अंतिम सांस ली।“ इसके उपरांत आधुनिक मुस्लिम इतिहासकारों में हम निजामुद्दीन अहमद बख्शी, मुल्लाह अब्दुल कादिर, बदायूनी, फरिश्ता आदि को ले सकते हैं। इन सब ने याहया सरहिंदी के कथन का ही समर्थन किया है। दिल्ली के शेख अब्दुल हक के पुत्र शेख नूर उल हक ने इस विषय में अपनी अलग राय दी है। वह लिखता है कि कुछ विश्वसनीय इतिहासकारों के आधार पर यह उल्लेखित है कि गयासुद्दीन बलबन ने नासिरुद्दीन को जहर दिया था। वह आगे लिखता है कि बलबन नासिरुद्दीन को अपने घर लाया। कमरे को बाहर से बंद कर दिया उसमें उसे बंद कर दिया, जब तक कि वह भूख और प्यास से मर गया। नूर उल हक अपने कथन की पुष्टि में आगे लिखता है कि फिरोज तुगलक दिल्ली से बाहर जाने से पूर्व सुल्तानों की कब्र पर उनका आशीर्वाद लेने जाने का आदी था। परंतु वह कभी भी गयासुद्दीन बलबन की कब्र पर नहीं जाता था। वह कहता था कि वह गुलाम था, जिसने अपने स्वामी की हत्या की।
इसके अलावा जब बलबन के जीवन व चरित्र का सूक्ष्म अवलोकन करते हैं तो हमें इसामी व इब्नबतूता के कथन सत्य जान पड़ते हैं। बलबन प्रारम्भ से धूर्त, महत्वाकांक्षी बिना सिद्धांत का नवयुवक था। यदि इस क्षेत्र में हम उसकी तुलना मैकियावेली से करें तो अनुचित न होगा। जब इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम यही कहा था कि ऐसा व्यक्ति राजधानी में नहीं रहना चाहिए। दो शासक एक राज्य में नहीं रह सकते। इसी आधार पर इल्तुतमिश ने प्रथम उसे स्वीकार भी नहीं किया। परंतु जब वजीर कमालुद्दीन जुनैदी द्वारा सुल्तान के साथ प्रस्तुत किया गया तो उसने उसे स्वीकार किया। इल्तुतमिश का यह कथन सही निकला। उसकी मृत्यु होते ही यह महत्वाकांक्षी नवयुवक दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हो गया। वह अवसरवादी हो गया और कभी भी किसी का स्वामी भक्त नहीं रहा। इसी के आधार पर डॉक्टर हबीबुल्लाह अपनी पुस्तक 'फाउंडेशन ऑफ़ मुस्लिम रूल इन इंडिया' में लिखता है कि मसूद को भी गद्दी से बलबन की व्यक्तिगत अभिलाषाओं के कारण हटना पड़ा था।
नासिरुद्दीन बलबन के संपर्क में आने से पूर्व बड़ा कुशल प्रशासक था। परंतु प्रधानमंत्री की हैसियत से बलबन ने राज्य की सत्ता ज्यों ही संभाली; सुल्तान नासिरुद्दीन नाम मात्र का सुल्तान रह गया। बरनी लिखता है, “ उसने (बलबन) नासिरुद्दीन को नाम मात्र का रखा, जबकि वह स्वयं शासन करता था।“ अहमद निजामी की मान्यता है कि सुल्तान से अपनी पुत्री का विवाह भी अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने की दृष्टि से ही उसने किया था। अंत में जब नासिरुद्दीन को बलबन की नीयत पर संदेह हुआ तो उसने 1253 में प्रधानमंत्री से पदच्युत कर दिया, परंतु बलबन ने धूर्तता से अपना स्थान प्राप्त कर लिया और अब नासिरुद्दीन ने पूर्णतः अपने आप को उसके हवाले कर दिया। बल्कि बलबन की राज्य पाने की इच्छा दिनों दिन प्रबल होती गई और वह अपने उदेश्य की प्राप्ति का क्रमशः प्रयत्न करने लगा। इसामी लिखता है कि एक बार बलबन ने बीमार पड़ने का बहाना किया। सुल्तान ने भी पुछवाया की वह क्या चाहता है। बलबन ने सुल्तान को कहलवाया की वह छत्र चाहता है। सुल्तान ने जो बलबन के पराधीन हो चुका था, शीघ्र छत्र बलबन को भिजवा दिया। इस प्रकार बलबन ने राजचिन्ह भी प्राप्त कर लिया। दूसरे ही दिन छत्र धारण कर वह दरबार में उपस्थित हुआ। यह देख लोग नाराज हो गए। मलिक कुतुबुद्दीन हसन ने उसे बुरा भला कहा तो बलबन ने उसे महल में ही मरवा दिया और सुल्तान उसका कुछ भी न कर सका। पूछने पर बलबन ने शांतिपूर्वक सुल्तान से कहा, “देश के उद्यान में वह कांटा था। वह कांटा देश को नुकसान पहुंचा रहा था। मैंने उनसे इस कांटे को हटाने तथा उसका सिर राजा के महल में पहुंचाने का आदेश दिया है।“
सुल्तान इस दुखद समाचार को सुनकर स्तंभित रह गया, पर वह कुछ नहीं कर सका। इससे स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री की दशा में ही बलबन सुल्तान पर कितना हावी हो गया था। इसका एक दृष्टांत और भी है। एक बार सुल्तान ने बाबा फरीद का आशीर्वाद पाने की अभिलाषा व्यक्त की। बलबन ने उसे वहां जाने से मना किया और कहा कि उसकी तरफ से वह बाबा फरीद के पास हो आएगा। इस घटना के आधार पर अमीर खुर्द (Amir Khurd) ने अपने ग्रंथ 'सियार-उल-औलिया' (Siyar-ul-Auliya) में लिखा है कि बलबन राज्य प्राप्ति की अति अभिलाषा रखता था।
इसामी ने एक दूसरा दृष्टांत और दिया है जो बलबन की महत्वाकांक्षी तथा उसके राज्य प्राप्ति की अभिलाषा की पुष्टि करता है। उस के मतानुसार नासिरुद्दीन के दो पुत्र हुए थे जो बलबन के पुत्रों के साथ रहा करते थे। 1 दिन परिहास में सुल्तान के 1 पुत्र ने बलबन के पुत्र से कहा कि उलगखां (बलबन) को घोड़े से जमीन पर एक साधारण चालाकी से ला सकते हैं। बलबन के पुत्र ने यह हाल अपने पिता को सुनाया। सुनकर बलबन क्रोधित हुआ और उसने सुल्तान को शीघ्र ही मारने की ठानी। इस घटना के उपरांत बलबन राज्य प्राप्ति के लिए अति आतुर हो उठा और वह भले बुरे का विचार न कर राज्य प्राप्ति के लिए सब कुछ कर बैठने को उद्यत हो गया। अतः उसने सुल्तान के संबंधियों को निर्दयता से मौत के घाट उतारना आरंभ कर दिया। फरिश्ता लिखता है कि बलबन ने अपने राज्यारोहण के बाद शीघ्र ही इल्तुतमिश के वंश के जीवित मनुष्य को, जिन्हें वह अपना प्रतिद्वंदी समझता था, निर्दयता से इस लोक से विदा कर दिया। यद्यपि अन्य इतिहासकारों ने बलबन के बुरे इरादों को छुपाने का प्रयास किया है। परंतु बलबन के जीवन की घटनाओं तथा उसके कार्यों से यह स्पस्ट हो जाता है कि वह दिल्ली राज्य का भूखा था। उसकी प्राप्ति के लिए वह सब से संबंध बिगाड़ कर सब कुछ कर सकता था। अतः वह नासिरुद्दीन को अधिक दिन अपने कंटक रूप में नहीं देख सकता था। अपनी इसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो उसने 1265 ईस्वी में सुल्तान नासिरुद्दीन को इस लोक से विदा कर स्वयं ने उसका राज्य हड़प लिया।

मृत्यु तथा चरित्र--

7 मार्च सन 1285 ईस्वीं को बलबन का जेष्ठ पुत्र मुहम्मद मंगोलो से युद्ध करता हुआ युद्ध में काम आ गया। बलबन बुढ़ापे में पुत्र वियोग के दुख को सहन नहीं कर सका और 80 वर्ष की आयु में 1286 ईस्वीं में वह भी इस दुनिया से सदैव के लिए विदा हो गया। बलबन का गुलाम वंश के शासकों में स्थान बहुत ऊंचा है। वह एक उच्च कोटि का प्रशासक था। शांति स्थापित करने के लिए उसने कठोर नीति का अनुसरण किया। यह सत्य है कि बलबन का शासन मुस्लिम धर्म की भित्ति पर खड़ा था। बरनी लिखता है कि बलबन ने न्याय करने में धर्म को दीवार स्वरूप नहीं आने दिया। एक बार उस ने सही कहा था, “मेरा काम अत्याचारों का दमन करना और कानून की दृष्टि में सब लोगों को समानता प्रदान करना है। राजा का धर्म अपनी प्रजा को सुखी और समृद्ध बनाने का है।“ कठोर होने के साथ वह दयालु तथा उदार वृत्ति का भी था। वह विद्या प्रेमी तथा विद्वानों का आदर करने वाला था। उसने अपने जीवन का अधिकांश भाग राज्य की सेवा में व्यतीत किया। डाकुओं का दमन, मंगोलों के आक्रमण का सामना व तुगरिल बैग की बगावत को दबाना उसके अदम्य उत्साह व एक सफल सेनानायक के परिचायक हैं। जैसा कि डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं, “बलबन एक महान योद्धा, शासक तथा राजनीतिज्ञ था और उसने संकटकालीन अवस्था में नवजात मुस्लिम राज्य को विनाश से बचाया था। भारत के मध्यकालीन इतिहास में बलबन का नाम महत्वपूर्ण है।“ अपने सुशासन से उसने तुर्की सल्तनत की रक्षा की तथा उसे नवजीवन प्रदान किया। उसने अपने पूर्वज सुल्तानों के समय में लुप्त ताज की प्रतिष्ठा को पुनः कायम किया। उसने राज्य में शांति व सुव्यवस्था स्थापित की। यह गुण अन्य गुलाम वंश के सुल्तानों में नहीं मिलता।
बलबन एक वीर योग्य सैनिक भी था। उसने अपने जीवन काल में अनेक युद्ध किए। परंतु उसकी यह वीरता उसे साम्राज्यवादी न बना सकी। सुल्तान बनते ही उसे अनेक बाहरी व भीतरी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस कारण भी वह साम्राज्यवादी नीति न अपना सका। दरबारियों से प्रेरित किए जाने पर भी वह सीमा विस्तार की नीति पर अमल न कर सका।

गुलाम वंश का अंत--

बलबन ने अपने जीवन काल में ही अपने जेष्ठ पुत्र मुहम्मद के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। परंतु उसकी मृत्यु पर कोतवाल फकरुद्दीन के नेतृत्व में अमीरों ने खुसरो का विरोध किया और बुगराखां के पुत्र कैकुबाद को गद्दी पर बैठाया। कैकुबाद सत्रह अट्ठारह वर्ष का युवक था। अतः उसने सुल्तान बनते ही शासन कार्य से विरक्ति ले ली और अपना जीवन विलासिता में व्यतीत करने लगा। कहते हैं बचपन में कैकूबाद का पालन-पोषण उसके दादा के कठोर अनुशासन में हुआ था। उसका अध्यापक इतना कठोर था कि राज्य पाने से पूर्व है वह न किसी रूपवती स्त्री को देख सका था और न मदिरा का पान कर सका था। गद्दी मिलते ही उसमें परिवर्तन आ गए। इसका परिणाम यह हुआ कि शहर के कोतवाल फखरुद्दीन के दामाद निजामुद्दीन ने सत्ता हथिया ली। निजामुद्दीन चालाक तथा एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने खुसरो की हत्या करवा दी और कैकुबाद का अंत कराने का भी षड्यंत्र रचा, पर उसका पता चल गया। निजामुद्दीन को कुचल दिया गया। पर इससे राज्य में अराजकता फैल गई और इस समय दरबार में खिलजी व तुर्की अमीरों के दो दल बन गए। इस स्थिति की सूचना पाकर बुगरा खान दिल्ली आया। उसने अपने पुत्र को उन भयंकर परिणाम से अवगत कराया जो उसके विलासपूर्ण कार्यों से उत्पन्न होने वाले थे। पिता की इस चेतावनी से कैकूबाद बहुत प्रभावित हुआ। विलासिता का परित्याग कर व सदाचार पूर्ण जीवन व्यतीत करने लगा। परन्तु पिता की शिक्षा का प्रभाव पुत्र पर अस्थाई सिद्ध हुआ और वह पुनः चालाक मंत्री के प्रभाव में आकर विलासपूर्ण बिताने लगा। दिन रात की विलासिता से उसका शरीर रुग्ण हो गया। लकवे की बीमारी से ग्रसित होकर जनवरी 1290 ईस्वीं में वह इस लोक से विदा हो गया। कुछ इतिहासकार कहते हैं उसे खिलजी दल के नेता जलालुद्दीन ने मरवाया था। मजूमदार लिखता है “कि लाखे में उसके शीश महल में एक खिलजी सरदार ने जिसका पिता उसकी आज्ञा से फांसी पर चढ़ाया गया था, उसकी हत्या कर दी। कैकुबाद का शरीर यमुना नदी में फेंक दिया गया।“ जलालुद्दीन ने कैकुबाद की मृत्यु के उपरांत उसके शिशु पुत्र समसुद्दीन क्यूमर्स को सुल्तान बनाया, परंतु मार्च 1290 ईस्वीं में उसका भी वध करवा दिया गया और जलालुद्दीन स्वयं दिल्ली के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो गया। इस प्रकार गुलाम वंश का अंत हो गया।

गुलाम वंश में सबसे महान शासक कौन ?--

गुलाम वंश में 1206 ईस्वी से 1290 ईस्वी तक कुल 10 शासन हुए। उनमें से छह शासक तो निर्दयता पूर्वक मौत के घाट उतार दिए गए। रजिया बेगम भी इन्हीं छह शासकों में थी। यद्यपि वह एक अच्छी शासिका थी। परंतु एक स्त्री होने के कारण सफल शासिका नहीं हो सकी। इसके अलावा उसने शासन भी केवल साढ़े तीन वर्ष ही किया। इस अल्पकाल में वह अपनी योग्यता का विशेष परिचय नहीं दे सकी। शेष शासन करने वालों में चार सुल्तान रहे, उनमें सबसे पहला कुतुबुद्दीन था।
कुतुबुद्दीन गुलाम वंश का प्रथम सुल्तान था। उसे गुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है। निसंदेह एक अच्छा सेनानायक उच्च कोटि का राजनीति के था। उसने राज्य की व्यवस्था भी कायम की। परंतु अपने शासन के अल्पकालीन होने के कारण वह अपने समय की कोई योजना प्रस्तुत नहीं कर सका। इसी कारण उसका राज्य उसकी मृत्यु होते ही अराजकता के भंवर में फंस गया। यदि इल्तुतमिश नहीं होता तो कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा स्थापित गुलाम वंश समाप्त हो गया होता। इसके अलावा कुतुबुद्दीन को खलीफा ने सुल्तान भी नहीं माना था। उसको स्वयं को भी अपने सुल्तान होने में आशंका होती थी। इसी कारण उसने अपने शासनकाल में अपने नाम का कोई सिक्का नहीं चलाया।
नासिरुद्दीन तो एक धर्मात्मा सुल्तान था। उसने राज्य से कार्य विरक्ति ले रखी थी और उसके राज्य का शासन उसके प्रधानमंत्री बलबन द्वारा संचालित होता था। इतिहासकारों की ऐसी मान्यता है कि राज्य का वास्तविक शासन बलबन के हाथों में था और नासिरुद्दीन तो उसके हाथ की कठपुतली बना हुआ था। इसका गुलाम वंश में सुयोग्य शासक होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अब हमारे सामने इल्तुतमिश और बलबन दो गुलाम वंश के शासक रह जाते हैं। दोनों ही सुल्तान इस वंश के प्रतापी शासक थे। कई इतिहासकार इल्तुतमिश को महान बताते हैं और कई बलबन को।

सेनानायक के रूप में--

इल्तुतमिश एक योग्य सेनानायक था। उसको राज्य गद्दी पर बैठते ही बलबन से भी अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। बलबन ने तो अपने प्रधानमंत्री काल में ही बहुत सी कठिनाईयों पर विजय पा ली थी तथा अपने शासन को सुव्यवस्थित कर लिया था। मंगोलों के आक्रमण का मुकाबला दोनों को ही करना पड़ा। इल्तुतमिश ने इस भय को केवल अपनी दूरदर्शिता से ही टाल दिया था और इस क्षेत्र में उसने कोई ठोस एवं स्थाई कदम नहीं उठाया। पर बलबन ने उन भयंकर शत्रुओं से देश को सुरक्षित रखने के लिए एक योजना बनाई थी, जो उसके बाद में आने वाले शासकों द्वारा भी अपनाई गई। विजय के क्षेत्र में इल्तुतमिश बलबन से आगे था। उसने स्वयं उत्तरी भारत पर अधिकार कर वहां अपना सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया था, जबकि बलबन को सुव्यवस्थित व सुसंगठित राज्य प्राप्त हुआ था। इस पर भी उसने अपने साम्राज्य विस्तार की और ध्यान नहीं दिया। आंतरिक विद्रोह को दबाने में दोनों शासक सफल रहे। परंतु प्रबल विद्रोही इल्तुतमिश के समय में ही थे। बलबन को अधिक शक्तिशाली विद्रोहियों का सामना नहीं करना पड़ा।

प्रशासक के रूप में--

यद्यपि सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था स्थापित करने का इल्तुतमिश को ज्यादा समय नहीं मिला, परंतु फिर भी उसका शासन प्रबंध दूषित नहीं था। बलबन ने प्रधानमंत्री के रूप में भी शासन सुधार किया और शासक के रूप में भी काम किया। उसने अपने दरबार की शान बढ़ाई और अच्छे राज नियम भी बनाए। परंतु उसकी शासन व्यवस्था स्थाई सिद्ध न हो सकी। उसका राज्य उसके द्वारा संचालित शासन प्रबंध अधिक समय नहीं चल सका, जबकि इल्तुतमिश की शासन व्यवस्था स्थाई सिद्ध हुई। उसके अयोग्य उत्तराधिकारी होने के कारण जो राज्य अराजकता व अशांति के गर्त में गिर चुका था, वह फिर भी नष्ट नहीं हुआ। धर्म में दोनों सुल्तान कट्टर थे। परंतु इल्तुतमिश ने धर्म को राज्य धर्म बना लिया था, जबकि बलबन धर्म को शासन से दूर रखता था। बलबन न्याय निष्पक्ष होकर करता था, तथा उसकी नीति इल्तुतमिश से अधिक कठोर थी। उसने भय को राज्य का आधार माना था। तब भी उसकी शासन व्यवस्था चिरस्थाई नहीं रही और उसका साम्राज्य भी उसके मरते ही छिन-भिन्न हो गया। इसके विपरीत जबकि इल्तुतमिश ने राज्य के अस्तित्व के लिए कठोरता कथा भय को इतनी मात्रा में नहीं अपनाया और तब भी उसका राज्य उसके मरने पर भी कायम रहा।

व्यक्ति के रूप में--

दोनों सुल्तान दयालु और उदार वृति के थे। परंतु विद्रोहियों का दमन करने में बलबन अधिक कठोर था। दोनों विद्वानों का आदर करते थे तथा उन्हें अपने यहां दरबार में स्थान देते थे। कला के विकास में सहयोग देकर दोनों शासकों ने कला अनुरागी होने का परिचय दिया। परंतु सांस्कृतिक विकास जितना बलबन के काल में हुआ, इतना इल्तुतमिश के काल में नहीं हुआ। दोनों ही निरंकुश शासक थे। प्रजा की भलाई करना बलबन एक शासक का परम एवं प्रमुख कर्तव्य समझता था। उसका मान विदेशों में इल्तुतमिश से कहीं अधिक था। व्यक्तिगत जीवन दोनों संतानों का निष्कलंक था।
उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से भी यह कहना कठिन प्रतीत होता है कि गुलाम वंश का सर्वोच्च शासक किसे कहा जाए? सर वलजले हेग और डॉक्टर के दत्त इल्तुतमिश को ऊँचा स्थान देते हैं और उसे गुलाम वंश का सबसे महान सुल्तान मानते हैं। परन्तु डॉक्टर शर्मा की मान्यता है कि इल्तुतमिश तो गुलाम वंश का निर्माता था और इस वंश का महान सुल्तान बलबन था।
अतः प्रसिद्ध इतिहासकारों द्वारा भी यह प्रश्न विवादित बना दिया गया है और आज भी वह किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए हैं। वास्तव में देखा जाये तो दोनों शासक, सफल राजनीतिज्ञ तथा सुयोग्य सेनानायक थे। दोनों शासक कर्तव्य परायण तथा दूरदर्शी थे। अतः हम तो यह कहना उचित समझते है कि दोनों ही सुल्तानों ने तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार शासन संचालित किया और वह उस समय के दृष्टिकोण से उचित था। दोनों सुल्तानों की राजनीति साम्राज्य को सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध हुई। 

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