अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय । Historically famous Chittorgarh victory of Alauddin Khilji.

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अलाउद्दीन खिलजी की विजय (1297-1311 ईस्वीं) अलाउद्दीन खिलजी उत्तरी भारत की विजय (1297-1305 ईस्वीं)-- अलाउद्दीन खिलजी की इतिहास प्रसिद्ध चितौड़गढ़ विजय व प्रारंभिक सैनिक सफलताओं से उसका दिमाग फिर गया था। महत्वाकांक्षी तो वह पहले ही था। इन विजयों के उपरांत वह अपने समय का सिकंदर महान बनने का प्रयास करने लगा। उसके मस्तिष्क में एक नवीन धर्म चलाने तक का विचार उत्पन्न हुआ था, परन्तु दिल्ली के कोतवाल काजी अल्ला उल मुल्क ने अपनी नेक सलाह से उसका यह विचार तो समाप्त कर दिया। उसने उसको एक महान विजेता होने की सलाह अवश्य दी। इसके अनंतर अलाउद्दीन ने इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम उत्तरी भारत के स्वतंत्र प्रदेशों को विजित करने का प्रयास किया। 1299 ईस्वी में सुल्तान की आज्ञा से उलुगखां तथा वजीर नसरत खां ने गुजरात पर आक्रमण किया। वहां का बघेल राजा कर्ण देव परास्त हुआ। वह देवगिरी की ओर भागा और उसकी रूपवती रानी कमला देवी सुल्तान के हाथ लगी। इस विजय के उपरांत मुसलमानों ने खंभात जैसे धनिक बंदरगाह को लूटा। इस लूट में प्राप्त धन में सबसे अमूल्य धन मलिक कापुर था, जो कि आगे चलकर सुल्तान का

Governance of the Slave Dynasty rulers in India. भारत में गुलाम वंश के शासकों की शासन व्यवस्था ।

भारत में गुलाम वंश की शासन व्यवस्था कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 ईस्वी) द्वारा स्थापित कि गई और यह शासन व्यवस्था व्यवस्थित ढंग से गयासुद्दीन बलबन के शासनकाल तक चलती रही। बलबन इस लोक से 1286 ईस्वी में विदा हुआ और उसकी मृत्यु के 4 वर्ष उपरांत (1290 ईस्वी) में ही गुलाम वंश भारत में समाप्त हो गया। 1290 ईस्वी में भारत से गुलाम वंश के शासकों द्वारा प्रतिपादित शासन संस्थाएं भी समाप्त हो गई। बलबन ने अपने राजस्व सिद्धांतों को बड़ी कठोरता से क्रियान्वित किया; परन्तु उसकी शासन व्यवस्था उसके जीवनकाल में ही लड़खड़ाने लग गई थी। गुलाम वंश के शासकों ने अपनी शासन व्यवस्था किसी पूर्व नियोजित योजना के अनुसार लागू नहीं की थी। उनकी शासन व्यवस्था मूलतः उनके धार्मिक सिद्धांत व भारत की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित रहती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी शासन व्यवस्था स्थाई न होकर समय अनुकूल परिवर्तनशील बनी रही। फिर भी उनकी शासन व्यवस्था को हम निम्न स्वरूप में देख सकते हैं।

राज्य का स्वरूप--

भारत के गुलाम शासकों का शासन तत्कालीन अन्य मुस्लिम शासकों की भांति धार्मिक सिद्धांत पर आधारित था। वे अपना शासन कुरान तथा अन्य मुस्लिम धार्मिक ग्रंथों के आधार पर संचालित करते थे। वे इस्लाम को अपना राज-धर्म घोषित करते थे। इस्लाम धर्म के अनुयायियों को ही उनके राज्य में सुविधाएं उपलब्ध होती थी तथा वे ही नागरिक माने जाते थे। स्पष्ट है कि इन सुल्तानों के शासनकाल में धर्म की प्रधानता रही। परंतु उनकी यह धार्मिक कठोरता सदैव एक समान न रही। इसका मूल कारण भारत में हिंदुओं का बहुसंख्यक होना था। इसी कारण गुलाम वंश के शासक अपनी धार्मिक कट्टरता से भारत में प्रचलित हिन्दुओं की धार्मिक व राजनीतिक परंपराओं को सर्वथा परिवर्तित न कर सके।

देवी सिद्धांत को मान्यता--

इस्लाम धर्म सिखाता है कि अल्लाह एक है। इस लोक में जो भी सत्ता का कारण है या जो सत्ता धारण करते हैं वह तो उसके प्रतिनिधि मात्र होते हैं। गुलाम वंश के शासकों ने इस सिद्धांत को अंगीकार किया। इस सिद्धांत के आधार पर ही उन्होंने निरंकुशता का बाना धारण किया था। वे कहा करते थे कि जनता के भले बुरे का उत्तरदायी सुल्तान होता है। पर आम जनता को शासन संबंधी विषयों में बोलने का कोई अधिकार नहीं था। उन पर नियंत्रण केवल अल्लाह का है। स्पष्ट है कि तुर्की सुल्तान जनता की इच्छा की चिंता ना कर अपनी सेना की चिंता करते थे, जिसकी सहायता से वे शासक बने रहते थे। इस कारण सुल्तान सदैव अपनी सेना को प्रबल बनाए रखने की चिंता करते थे। राज्य की भीतरी व आंतरिक सुरक्षा सेना पर ही निर्भर रहती थी। इसीलिए वे सेना के निवास व सीमा की सुरक्षा के लिए सुदृढ़ किलों का भी निर्माण करवाते थे।
इस्लाम धर्म राज्य का आधार होता था। यह धर्म यह भी स्पष्ट करता है कि सुल्तान जनता द्वारा निर्वाचित होना चाहिए। परंतु इस सिद्धांत को इस वंश के सुल्तानों ने कभी नहीं अपनाया। यहां के शासक अरब व फारस की शासन प्रणाली का ही अनुसरण करना श्रेष्ठ समझते थे। वह निर्वाचन का सिद्धांत जब मक्का में ही क्रियान्वित नहीं किया जा सका, तो भारत में वे इसे क्यों कर लागू करते? इसके अलावा भारत की तत्कालीन परिस्थितियों भी इसके लिए अनुकूल नहीं थी। इस कारण यह सिद्धांत तो मुस्लिम शासन में एक ढकोसला मात्र ही रहा। आरंभ के सुल्तानों में तो उत्तराधिकारी का कोई निश्चित नियम ही नहीं था। केवल तलवार ही इस समस्या का समाधान करती थी। परंतु तेरहवीं शताब्दी से इस नियम की और कुछ ध्यान दिया जाने लगा। उस काल में भी इस सिद्धांत को सुल्तान के परिवार के सदस्यों के साथ ही लागू किया जाता था। उस समय उत्तराधिकारी की योग्यता स्वर्गीय सुल्तान की इच्छा तथा अमीरों के समर्थन पर अवलंबित रहती थी। उसे निर्वाचन के सिद्धांत में भी अमीरों का समर्थन ही प्रमुख होता था। अतः यह स्पष्ट है कि उस काल में अमीर ही सुल्तान के निर्माता होते थे।

मुसलमानों को आदर मिलना--

नियम अनुसार शासक को अपनी समस्त जनता के साथ एक सा व्यवहार करना चाहिए। उसकी दृष्टि में जनता के सब लोग समान होने चाहिए। परंतु इस काल में गुलाम शासक ऐसा नहीं करते थे। राज्य के नागरिक सच्चे रूप में मुसलमान ही होते थे। हिंदुओं को उस काल में ‘जिम्मी’ कहा जाता था और उन्हें नागरिकता के अधिकार से वंचित रखा जाता था। उनके सामने मुस्लिम राज्य में रहने के लिए केवल 3 ही रास्ते होते थे--या तो वे इस्लाम को अंगीकार कर लें अथवा अपने धर्म पालन हेतु सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करें। तीसरा रास्ता होता था जजिया देना। अधिक संख्या में होने के कारण समस्त हिंदुओं का कत्लेआम करना मुस्लिम शासकों को दुर्लभ प्रतीत हुआ। इसलिए उन्होंने जजिया लेकर हिंदुओं को कालयापन की अनुमति प्रदान कर दी। जजिया देने के उपरांत भी उन्हें सरकारी सेवाओं से वंचित रखा गया। न्याय उन्हें हिंदू परंपराओं पर न देकर मुस्लिम परंपराओं के आधार पर ही प्रदान किया जाता था और उसमें भी पक्षपात होता था। प्रथम तो सुल्तान ही धर्म के कट्टर होते थे। इसके अतिरिक्त वे उलेमाओं से निर्देशित होते थे। इस कारण हिंदुओं पर अत्याचार और भी अधिक होते थे। यहां तक कि उन्हें अपने देवताओं की उपासना करने की भी स्वतंत्रता न थी। उनके देवालयों को धराशाई कर उन्हें लूटा जाता था। उनकी देव प्रतिमाओं को खंडित कर अन्य स्थान को भेज दिया जाता था। डॉक्टर कुरैशी तथा मेहंदी हसन ने अपनी दलीलों से यह प्रमाणित करना चाहा है कि तुर्की सुल्तानों ने हिंदुओं पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाए थे। उनका जीवन भी मुसलमानों की भांति सुखद होता था। परंतु डॉक्टर ए. एल. श्रीवास्तव की मान्यता है कि उनके यह तर्क विश्वसनीय नहीं है।

खलीफा का प्रशासन में महत्व--

मुहम्मद साहब की मृत्यु पर उसका स्थान खलीफा ने ले लिया था। अतः समस्त मुस्लिम जगत का सर्वोच्च अधिकारी खलीफा बन गया था। मध्यकालीन पोप की भांति वह धार्मिक क्षेत्र में ही सर्वोच्च नहीं होता था, वरन राजनीति में भी वह अपनी प्रधानता रखता था। गुलाम शासक समय-समय पर उनसे प्रशासन में भी मंत्रणा लेते रहते थे। उनकी इच्छा के विरुद्ध वे कुछ नहीं करते थे। महमूद गजनवी को बगदाद के अब्बासी खलीफा ने सुल्तान की पदवी से विभूषित किया था। मोहम्मद गौरी ने भी खलीफा को प्रसन्न करने की दृष्टि से अपनी मुद्राओं पर उसका नाम उत्कीर्ण करवाया था। इसके बाद गुलाम वंश के शासक तो खलीफा की अनुकंपा पर अधिक आश्रित रहने लगे थे, क्योंकि अमीर उन्हें खलीफा की स्वीकृति के बिना वैधानिक शासक ही नहीं मानते थे। इल्तुतमिश ने अपने आप को सुल्तान तब ही माना, जबकि खलीफा ने उसे मान्यता प्रदान कर दी थी। खलीफा ने उसे सुल्तान होने की मान्यता ही प्रदान नहीं की, वरन उस को ख़िलअत भेजकर सम्मानित भी किया। इसके बदले में इल्तुतमिश ने अपनी मुद्राओं पर खलीफा का नाम उत्कीर्ण करवाया। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुलाम वंश के शासक खलीफाओं को अपने प्रशासन में प्रमुखता देते रहे तथा स्वयं को उसका नायब समझते रहे।

केंद्रीय सरकार--

सुल्तान का स्थान--

दिल्ली सल्तनत के शासक सुल्तान कहलाते थे। वे सच्चे अर्थ में सत्ता संपन्न होते थे। राज्य की सारी सत्ता उनके हाथों में केंद्रीयभूत होती थी तथा वह अनियंत्रित होते थे। सुल्तान अपनी कार्यपालिका का सर्वोच्च होता था तथा उसकी कार्यपालिका के समस्त सदस्य उसके प्रति उत्तरदाई होते थे। उनकी नियुक्ति उसी के द्वारा होती थी तथा वह चाहे जब उन्हें पदच्युत कर सकता था। मंत्री केवल उसके सलाहकार के रूप में होते थे। न्याय की अंतिम अपील सुल्तान के पास होती थी। उसकी इच्छा ही कानून होते थे। कार्यपालिका के सदस्यों के अतिरिक्त केंद्र तथा प्रांतों में समस्त उच्चाधिकारी उसी के द्वारा ही नियुक्त होते थे। अतः उसके अधिकार असीम होते थे।
परंतु इसका यह आशय कदापि नहीं लेना चाहिए कि वह प्रशासनिक कार्यों में पूर्ण स्वतंत्र होता था और चाहे जो कार्य, चाहे जिस ढंग से कर सकता था। प्रथम तो उस पर कुरान की आयतों का नियंत्रण होता था। इसके अलावा उल्लेमा लोगों का भी उस पर पर्याप्त प्रभाव रहता था। इस काल के शासकों को बहुत कुछ सेना की शक्ति पर निर्भर रहना पड़ता था। अतः यह तो स्पष्ट है कि प्रशासनिक कार्यों सुल्तान सर्वथा स्वतंत्र नहीं होता था। इसके अलावा उसे हिंदुओं की परंपराओं का भी थोड़ा बहुत तो ध्यान रखना ही पड़ता था।

राज्य परिवार--

सुल्तान के परिवार के सदस्यों का भी आम जनता में पर्याप्त आदर होता था। राजनीति में उनका अधिक महत्व नहीं होता था। राजनीति में परिवार के सदस्य अपना प्रभाव सुल्तान के निर्वाचन व राज्यारोहण के समय ही प्रदर्शित कर सकते थे। स्त्रियों का आदर कम था तथा राजनीति में बहुत समझदार व धूर्त बेगम ही अपना प्रभाव दिखा सकती थी। सुल्तान की सबसे बड़ी बेगम ’मल्लिका-ए-जहां’ कहलाती थी। सुल्तान की मां ‘ख़ुदाबदे-जहां’ कहलाती थी। परंतु सुल्तान का परिवार उसकी बेगम के कारण विशाल होता था, जिसके भोजन की व्यवस्था रसद विभाग (कारखाना) द्वारा होती थी। रसद विभाग के संचालन के लिए अधिकारी अलग होते थे।

मंत्री गण--

तुर्की सुल्तानों का प्रशासन सुनियोजित नहीं होता था। जैसा समय होता था, वैसे ही कुछ कर्मचारी नियुक्त कर लिए जाते थे। उनकी संख्या कभी भी किसी भी विभाग में निश्चित न थी। परंतु उस समय साधारणतया चार मंत्री रखे जाते थे। प्रथम मंत्री ‘वजीर’ कहलाता था। उनकी समता हम आज के मुख्यमंत्रियों से कर सकते हैं। राजस्व व अर्थ विभाग उनके अधीन होते थे। शेष मंत्रियों की देखभाल भी वह करता था। कभी-कभी उसे सेनापति का कार्य भी करना पड़ता था। तथा वह युद्ध में सेना का संचालन भी करता था। उसके अधीन विशाल सचिवालय होता था। उसकी सहायता के लिए एक नायाब होता था। दूसरा मंत्री ‘आरिजे-मुमालिक’ होता था। इसका मुख्य कार्य सैनिकों की भर्ती को देखना तथा उनकी गणना करना होता था। सैनिकों के वेतन की व्यवस्था वह करता था सेना की साज सज्जा का प्रबंध भी वही करता था। सेना का निरीक्षण तथा उसमें अनुशासन बनाए रखना भी उसी का कार्य होता था। तीसरा मंत्री ‘दीवाने-इंशा’ होता था। वह शाही घोषणाओं व सरकारी पत्रों का मसविदा तैयार करता था। वह सुल्तान के साथ रहता था तथा उसके समस्त कार्यों का रिकॉर्ड तैयार करता था। उसकी सहायता के लिए कई सचिव तथा मुंशी होते थे। चौथे मंत्री ‘दीवाने-रसालात’ कहलाता। उसके अधीन विदेशी मामलात रहते थे। पड़ोसी देशों को राजदूत वह भेजता था तथा वहां से आए राजपूतों से संपर्क भी वही करता था।

अन्य अधिकारी--

वजीर को आर्थिक विषयों में सहायता देने के लिए ‘मुंशी-ए-मुमालिक’ (महालेखाकार) तथा ‘मुस्तवफी-ए-मुमालिक’ (महालेखा परीक्षक) होते थे। मंत्रियों के बाद स्थान ‘वरीदे-मुमालिक’ (मुख्य संवाददाता) और काजी-ए-मुमालिक’ (राज्य का मुख्य न्यायाधीश) होता था। वरीदे-मुमालिक के अधीन अनेक दूत तथा संवाददाता होते थे। काजी एक राज्य का न्यायाधीश होता था। न्याय धर्म व कुरान के अनुसार किया जाता था। इसीलिए इसके अधीन धर्म का विभाग भी होता था। सुल्तान के घरेलू कार्यों की देखभाल के लिए ‘वकीलेदर’, ‘अमीरेहाजिब’ तथा सरजांदार होते थे। वकीलेदर शाही महलों का प्रबंधक होता था। उस का सुल्तान से सीधा संपर्क होता था। इस कारण उसका सुलतान पर प्रभाव भी ज्यादा होता था। अमीरेहाजिब शिष्टाचार संबंधी नियम बनाता था तथा वहीं उन्हें लागू करता था। सुल्तान को मध्य श्रेणी के व्यक्तियों से अंग रक्षकों की नियुक्ति व उनकी देखभाल वही करता था। इसके अलावा ‘अमीर-ए-आकुर’ (घोड़ों का अध्यक्ष) तथा शाइने पीलां (हाथियों का अध्यक्ष) अन्य महत्वपूर्ण कर्मचारी और होते थे। कुछ सुल्तानों ने नाईवे-मुमालिकात का नवीन पद स्थापित किया। पर इस पद की पूर्ति सदैव नहीं होती थी। इस पद का महत्व पर्याप्त होता था। बलबन ने इस पद पर नियुक्ति अवश्य की, पर वह अधिक प्रभावशाली न बन सका।

प्रांतीय शासन--

गुलाम वंश के शासकों के समय प्रांतों का गठन क्षेत्रफल व आर्थिक आधारों पर नहीं होता था। यह सत्य है कि गुलाम वंश के समस्त सुल्तानों को अपने शासनकाल में अनेक युद्ध करने पड़े थे। पर उन युद्धों की वजह से उनके साम्राज्य का विस्तार नहीं हुआ था। बलबन के शासनकाल तक गुलाम वंश का साम्राज्य उतना ही रहा, जितना कि मोहम्मद गौरी स्वयं ने या उसके काल में कुतुबुद्दीन ऐबक ने किया था। इन युद्धों का दूसरा परिणाम यह भी होता था कि कभी कोई नवीन प्रांत बन जाता तो कभी किसी प्रांत का क्षेत्रफल घट जाता था। अतः प्रांतों का निर्माण समानता के आधार पर नहीं होता था। प्रत्येक क्षेत्र के अधीन कुछ भूमि होती थी जिन्हें ‘इक्ता’ कहा जाता था। इक्ता दो प्रकार की होती थी--छोटी इक्ता व बड़ी इक्ता। छोटी इक्ता का क्षेत्रफल एक गांव के लगभग होता था जबकि बड़ी इक्ता का क्षेत्र एक प्रदेश होता था। यूरोपीय लेखकों ने इक्ता का अर्थ सैनिक जागीर से लिया है। परंतु इस काल में इसका अर्थ सूबे (प्रांत) से ही लिया जाता था। इनके स्वामी को इक्तादार कहते थे। इक्तादार से तात्पर्य सुविधाओं से ही था। उनको भी प्रांतीय सरकार के निर्माण तथा वहां के शासन संचालन में पर्याप्त अधिकार प्राप्त थे। इक्तों का शासन तथा उनके अधिकार पर परस्पर में समान नहीं होते थे। परंतु वे अपने क्षेत्र में स्वतंत्र होते थे। जिस प्रकार सुल्तान की निरंकुशता पर धार्मिक नियम उलेमाओं की मंत्रणा तथा भारत देश की प्रचलित परंपरा नियंत्रण रखती थी, उसी प्रकार इक्तादार की स्वतंत्रता पर स्थानीय शासन अंकुश रखता था। स्थानीय शासन भारत वासियों के ही हाथ में था।
प्रांत में कार्य करने वाले पदाधिकारी इक्तादार के द्वारा नियुक्त होते थे। उनको पद से मुक्त करना भी उसी के अधिकार में होता था। इसके अतिरिक्त इक्तादार अपने सूबे का भूमि कर वसूल करता था। उसी कर में से वह अपने प्रांत की सरकार का व्यय चलाता था। व्यय के उपरांत जो बचता, वह केंद्रीय कोष में भेज दिया जाता था। प्रांत में शांति व्यवस्था बनाए रखना उसका परम कर्तव्य होता था। अवसर पड़ने पर वह सुल्तान को अपनी सेना भेजता था। वह स्वयं अच्छा वेतन पाता था तथा उसकी सहायता के लिए अन्य कर्मचारी होते थे। प्रांत का राजस्व सुल्तान या उसके प्रतिनिधि द्वारा चेक किया जा सकता था। उस समय के प्रमुख इक्ता यह थे--मंदावर, अमरोहा, संभल, बदायूं, बुलंदशहर, अलीगढ़ (कोईल), अवध, कड़ा, बयाना, मानिकपुर, ग्वालियर, नागौर, मुल्तान, डच, लाहौर, भटिंडा व सरहिंद आदि। हिंदू प्रदेश जो दिल्ली के अधीन हो गए थे उनसे भी कर यह इक्तादार ही वसूल करते थे। हिंदू राजाओं को खिराज (भूमिकर) व जजिया देना पड़ता था परंतु अपने आंतरिक मामलों में वे पूर्णत स्वतंत्र होते थे।

खालसा भूमि--

इक्ता के अतिरिक्त कुछ ऐसे भूमि के भाग थे, जिनका शासन केंद्रीय सरकार द्वारा संचालित होता था। ऐसे प्रदेश उस युग में खालसा कहलाते थे। यह भूमि भाग किसी को जागीर में नहीं दिए जाते थे। इनका भूमिकर केंद्रीय सरकार के कर्मचारी वसूल करते थे। यूरोप के विद्वानों ने ऐसे प्रदेशों को रिजर्व क्षेत्र कहा है।

आय के साधन--

सरकार की आय के उस समय दो प्रमुख साधन थे (एक) धार्मिक व (दो) मौलिक। धार्मिक कर को उस समय जकात कहते थे और वह जायदाद का 40 वां भाग होता था। धार्मिक कर के अलावा खिराज, जजिया, चुंगी आदि अन्य कर भी लिए जाते थे। जजिया भी उस समय सरकारी आय का एक मुख्य साधन था, क्योंकि यह कर भारत के हिंदुओं को इस्लाम स्वीकार न करने के बदले देना पड़ता था। सामान के एक स्थान से दूसरे स्थान जाने आने पर चुंगी ली जाती थी। खम्स भी उस समय आय का एक अच्छा साधन था। यह युद्ध में लूट में मिला धन होता था और सरकारी खजाने में इसके अंतर्गत लूट का पांचवा भाग जाता था। बिना उत्तराधिकारी के मरने वाले व्यक्ति की सारी संपदा सरकार द्वारा जप्त कर ली जाती थी। मुसलमानों को अपनी उपज का 1/10 भाग भूमि कर के रूप में देना पड़ता था। जबकि हिंदुओं को 1/5 भाग देना पड़ता था। इसके अलावा सुल्तान भेंट आदि लेकर भी सरकारी आय बढ़ाता था। इन साधनों से सुल्तान को प्रतिवर्ष भारी आय होती थी। परंतु इन सब से अधिक आय तो सुल्तान को हिंदू राजा का प्रांत लूटने से होती थी। इसी कारण राज-कोष सदा भरा रहता था। राजकोष पर सुल्तान का पूर्ण अधिकार होता था। वह उसके धन को अपने या अपने परिवार के सदस्यों की आवश्यकता पूर्ति में खर्च कर सकता था। पर फिर भी सिद्धांत रूप में सुल्तान की निजी व्यय के लिए राजकीय आय में से प्रथक धन दिया जाता था। गुलाम वंश के शासकों ने अच्छी प्रकार की मुद्राओं का भी प्रचलन किया था। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम चांदी के टंके व तांबे के जीतल प्रचलित किए थे। उन सब सिक्कों पर टकसाल का नाम भी अंकित रहता था।

सेना--

उस युग में शासन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग सेना थी, क्योंकि गुलामवंशीय सुल्तानों का राज्य सेना की शक्ति पर ही आधारित था। सुल्तान विदेशी थे तथा उन्हें निरंतर यहां के हिंदू नरेशों से अपने साम्राज्य को बनाए रखने के लिए युद्ध करने पड़ते थे। फिर भी सुल्तान उस समय कोई स्थाई सेना नहीं रखते थे। केंद्र में सुल्तान के कुछ अंगरक्षक अवश्य होते थे। जिनका कार्य सुल्तान की रक्षा करना था। अवसर पड़ने पर सुल्तान इक्तादार से सैनिक सहायता लेता था। स्थाई सेना न रखने का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि जब तुर्क भारत में आक्रमणकारी के रूप में आए थे--उस समय वे सब लड़ाकू थे। युद्ध में भाग लेना सबके लिए अनिवार्य था। पर जब यह आक्रमणकारी यहां के शासक बन गए तो उन्हें सेना की आवश्यकता पड़ी। सेना में मुख्य अश्वारोही होते थे। इनके उपरांत महत्व पैदल सैनिकों को दिया जाता था।
इक्तादार अपनी सेना रखते थे। सैनिकों की भर्ती वे स्वयं करते थे तथा उनको अनुशासन में रखना भी उन्हीं का काम था। इस सेना का खर्च भी इक्तादार ही वहन करते थे। परंतु प्रांतीय सेना पर आरिजे-मुमालिक का भी कुछ नियंत्रण होता था, क्योंकि सेना अवसर पड़ने पर सुल्तान की सहायता के लिए जाती थी। नियंत्रित सैनिकों के अलावा उस युग में दो प्रकार के सैनिक और होते थे। प्रथम श्रेणी में रंगरूट होते थे। यह सैनिक हिंदुओं के विरुद्ध ‘जिहाद’ बोलते थे। लूट का भाग इन सैनिकों में बांटा जाता था। दूसरी श्रेणी में स्वयं सैनिक होते थे। जो स्वयं अपनी इच्छा से सेना में सम्मिलित होते थे और सैनिक साज-सज्जा भी स्वयं ही खरीदते थे।
प्रांत में सेना का सबसे बड़ा अधिकारी इक्तादार होता था। दीवाने-आरिज को प्रांत की सेनाओं में सेनापति का काम नहीं करना पड़ता था। उस काल में सेनापति अलग नहीं होता था। केवल सुल्ताना रज़िया ने अपना सेनापति नियुक्त किया था। परंतु उसकी मृत्यु के बाद ही यह पद समाप्त कर दिया गया था। बलबन के अलावा समस्त गुलाम सुल्तानों ने सैनिकों को नगद वेतन न देकर जागीर देते थे। स्थाई सेना न होने के कारण गुलाम शासकों के सैनिक अधिक शिक्षित व अनुशासित नहीं होते थे। परंतु फिर भी वह हिंदू नरेशों के सैनिकों से अच्छे होते थे।

न्याय व्यवस्था--

उस युग में आज की भांति लिखे कानून नहीं होते थे। सुल्तान की इच्छा ही कानून होते थे। राज्य की न्याय व्यवस्था सुल्तान स्वयं करता था। न्याय की अपील भी वह स्वयं ही सुनता था। उसका निर्णय अंतिम होता था। इस प्रकार वह न्याय का स्रोत होता था। परंतु अभियोगों की सुनवाई व उनके निर्णय देने में वह काजी व सद्रे का सहयोग लेता था। सद्रे धार्मिक झगड़ों के निर्णय में स्पष्ट उसे सलाह देता था तथा अन्य अभियोग काजी के सहयोग से तय किए जाते थे। कभी-कभी काजी को ही सद्रे के भी कार्य करने पड़ते थे। इस दशा में वह सद्रे-जहां कहलाता था। इतिहासकार मिनहाज सिराज ने भी इस पद पर कार्य किया था। मुख्य काजी की हैसियत से वह अन्य अदालतों का निरीक्षण करता था। उन पर अपना नियंत्रण रखता था। अपने अधीनस्थ अदालतों में निर्णित अभियुक्तों की अपील भी सुनता था।
प्रांतों की न्याय व्यवस्था भी इसी प्रकार होती थी। प्रांतों में एक काजी होता था जिसकी नियुक्ति मुख्य काजी द्वारा होती थी। काजी के अधीन अमीरे-दद्दा होता था। उसकी समता हम आज के मजिस्ट्रेट कर सकते हैं। जो अभियोग पुर्णतः हिंदू से ही संबंधित होते थे, उनका निर्णय ग्राम पंचायतों द्वारा होता था, पर जिन अभियोगों में हिंदू और मुसलमान दोनों सम्मिलित होते थे उनका निर्णय काजी द्वारा किया जाता था। नगर की सुरक्षा के लिए कोतवाल होता था। नगर में शांति बनाए रखने में व चोर डाकुओं के भय से मुक्त रखने के लिए अन्य पुलिस कर्मचारी रखे जाते थे। पुलिस अधिकारी कोतवाल के अधीन होते थे। शांति बनाए रखने के अतिरिक्त वह अभियोग की छानबीन कर अपराधियों को काजी के सुपुर्द करता था। उस युग में फौजदारी कानून कठोर थे। अपराधियों को कठोर दंड दिया जाता था। अंग भंग का दंड उस समय सामान्य था। परंतु देश का स्थाई शासन सुल्तानों के प्रभाव से मुक्त था। ग्रामवासी अपने अभियोग पंचायतों द्वारा करवा लेते थे। हिंदू जनता को मुसलमानों के विरुद्ध निष्पक्ष न्याय प्राप्ति में कठिनाई होती थी। परन्तु इतिहासकार बरनी इसका खंडन करता है। वह लिखता है कि उस समय भी मुस्लिम सामान्य धनी हिंदू से रुपए उधार लेते थे और उनको वह धन चुकाना पड़ता था। वह आगे लिखता है कि इस व्यवस्था से बहुत से हिन्दू धनी होते जा रहे थे। और मुसलमान उन्हें मनमाने ढंग से लूट नहीं सकते थे। तत्कालीन शासन व्यवस्था के विषय में सर वुलजले हेग लिखता है कि गुलाम वंश के शासक हिंदू जनता के प्रति फिर भी न्यायप्रद व मानवीय होते थे। हालांकि वे कभी-कभी निर्दयी व असहिष्णु बन जाते थे।

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